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Law and Order: जानिए, क्या होती है पुलिस गार्द, कैसे करती है काम?
अपराध को रोकना, पता लगाना, पंजीकरण करना, जांच करना और अपराधियों पर मुकदमा चलाना राज्य सरकारों का प्राथमिक कर्तव्य होता है. सरकार के लिए इस काम को अंजाम तक पहुंचाती है पुलिस. पुलिस में कई तरह के आंतरिक विभाग होते हैं. इसी के तहत सशस्त्र पुलिस में होती है पुलिस गार्द..
परवेज़ सागर
- 26 मई 2022,
- (अपडेटेड 26 मई 2022, 6:46 AM IST)
- एक पुलिस गार्द में शामिल होते हैं पांच जवान
- पुलिस गार्द में होते हैं सशस्त्र पुलिस बल के जवान
- एक गार्द में एक हेड कांस्टेबल और चार कांस्टेबल होते हैं
हमारे देश के सभी राज्यों (States) में कानून व्यवस्था (Law and Order) को बनाए रखने की जिम्मेदारी पुलिस (Police) के कंधों पर है. इसी व्यवस्था के तहत हर जिले (District) में पुलिस कई तरह से काम (work) करती है. इसके लिए पुलिस के अलग-अलग अंग होते हैं. जैसे नागरिक पुलिस (civil police) और दूसरी सशस्त्र पुलिस (Armed Police). इसी प्रकार से पुलिस में एक होती है पुलिस गार्द (Police Gard). जी हां, आपने सही पढ़ा पुलिस गार्द. आइए जानते हैं कि पुलिस गार्द क्या होती है? और इसका काम क्या है?
लॉ एंड ऑर्डर (Law and Order) यानी पुलिस और लोक व्यवस्था (Police and Public Order) भारत के संविधान (constitution of india) की सातवीं अनुसूची के तहत राज्य के विषय (State subjects) हैं. इसलिए, अपराध को रोकना, पता लगाना, पंजीकरण करना, जांच करना और अपराधियों पर मुकदमा चलाना राज्य सरकारों का प्राथमिक कर्तव्य होता है. सरकार के लिए इस काम को अंजाम तक पहुंचाती है पुलिस. पुलिस में कई तरह के आंतरिक विभाग होते हैं. इसी के तहत सशस्त्र पुलिस में होती है पुलिस गार्द.
क्या होती है पुलिस गार्द (What is Police Gard) पुलिस गार्द में सशस्त्र पुलिस के जवानों का एक दल होता है, जो आवश्यकता पड़ने पर शांति व्यवस्था बनाए रखने और सुरक्षा के लिहाज से किसी भी स्थान पर या किसी व्यक्ति विशेष के साथ वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक या पुलिस कमिश्नर के आदेश पर तैनात किया जाता है. यूपी में तैनात अपर पुलिस अधीक्षक डॉ. संजय कुमार के मुताबिक एक पुलिस गार्द में पांच जवान होते हैं. जिसमें एक हेड कांस्टेबल और चार कांस्टेबल शामिल होते हैं.
अधिकांश पुलिस गार्द की तैनाती वीआईपी, वीवीआईपी और व्यक्ति विशेष के साथ या उनके निवास या कार्यालय पर की जाती है. शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए ज़रुरत पड़ने पर ही पुलिस गार्द को ऐसे स्थान पर तैनात किया जाता है, जहां माहौल तनावपूर्ण हो. वैसे ऐसा कम ही होता है. पुलिस गार्द का मुख्यालय संबंधित जनपद की पुलिस लाइन होती है. जहां वे प्रतिसार निरीक्षक को रिपोर्ट करते हैं.
इसे भी पढ़ें--- Law and Order: क्या होती है यातायात पुलिस, कहां से हुई थी शुरुआत?
आपको बता दें कि पुलिस गार्द में तैनात सभी जवान सशस्त्र पुलिस बल का हिस्सा होते हैं. सशस्त्र पुलिस के जवानों को जिले में रहने वाले आला अधिकारियों (top officials) और सांसदों, विधायकों (MPs, MLAs) की सुरक्षा (Security) के लिए गनर (Gunner) और पीएसओ (PSO) के तौर पर भी तैनात किया जाता है. जनपद में निवास करने वाले वीआईपी (VIP) और वीवीआईपी (VVIP) के साथ या उनके निवास पर पुलिस गार्द तैनात की जाती है.
तो इस लेख से आप जान गए होंगे कि पुलिस गार्द किसे कहते हैं और यह पुलिस गार्द किस तरह से काम करती है. कहां पुलिस गार्द की तैनाती की जाती है. हम इसी तरह से पुलिस के बारे में आप तक अन्य जानकारी भी पहुंचाते रहेंगे. अगर आप लॉ एंड ऑर्डर और पुलिस के विषय में और ऐसी कहानियां पढ़ना चाहते हैं तो aajtak.in को लगातार पढ़ते रहिए.
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NOCRIMINALS
भारतीय कानून की जानकारी | परिभाषा, अधिकार, नियम | Indian Law in Hindi
Indian law in hindi.
आज जब हम आधुनिक युग की बात करें या फिर प्राचीन समय की दोनों ही कालो में हमें कानून के बारे में देखने और सुनने का मौका मिलता है, लेकिन अक्सर आम जन इन कानूनों के बारे में या तो अनभिज्ञ रहता है या तो थोड़ा बहुत जानता है जिसका कारण हमारे कानूनों की भाषा का जटिल होना | दोस्तों हम इसी बात को ध्यान में रख कर आपके लिए लाये हैं आपके अपने इस लॉ पोर्टल Nocriminals.org पर “कानून की जानकारी” आसान भाषा में, इस पेज पर आपको न केवल IPC , CrPC के जटिल प्रावधानों को आसानी से समझया गया है बल्कि इसके साथ ही संविधान तथा और अन्य अधिनियम से सम्बंधित जानकारियां विस्तार से आम जान की भाषा में बताया गया है जिससे सभी लोग अपने कानून और अधिकारों से परिचित हो सकें |
असंज्ञेय अपराध (Non Cognizable) क्या है
हम पोर्टल के इस सेगमेंट में आपको IPC, भारतीय संविधान , CrPC व सभी भारतीय कानूनों के बारे में सटीकता के साथ जानकारी देने का प्रयास करेंगे जिसमे प्रोफेशनल वकील की भाषा के साथ सामान्य व्यक्ति भी समझ का भी ध्यान रखा जायेगा | आप यहाँ भारतीय कानून की जानकारी और कानून की परिभाषा, नागरिको के अधिकार, कानून के नियम इन सबके बारे में आसानी से समझेंगे | आपको बताते चले कि लोकतन्त्रीय आस्थाओं, नागरिकों के अधिकारों व स्वतन्त्रओं की रक्षा करने और सभ्य समाज के निर्माण के लिए कानून का शासन बहुत जरूरी है, या यूँ कहें कि इसका कोई अन्य विकल्प नहीं है। कानून का शासन का अर्थ है कि कानून के सामने सब समान होते हैं । यह सर्व विदित है कि कानून राजनीतिक शक्ति को निरंकुश बनने से रोकती है और समाज में सुव्यवस्था भी बनाए रखने में मदद करती है।
कानून की जानकारी
जब आपको अपने कानून और भारतीय संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों के बारे में पता रहता है तब ही केवल आप इनका प्रयोग कर सकते हैं परन्तु दुर्भाग्यवश कानून के बनने के इतने दिनों बाद भी आज तक लोगों को इसके बारे में जानकारी नहीं हैं | इस पेज पर हमने यही प्रयास किया है कि ऐसे कानूनों और अधिकारों की चर्चा की जाये जो कि साधारण लोगों को शोषण से बचाये |
1. ड्राइविंग के समय यदि आपके 100ml ब्लड में अल्कोहल का लेवल 30mg से ज्यादा मिलता है तो पुलिस बिना वारंट आपको गिरफ्तार कर सकती है | ये बात मोटर वाहन एक्ट, 1988, सेक्शन -185,२०२ के तहत बताई गई है |
2. किसी भी महिला को शाम 6 बजे के बाद और सुबह 6 बजे से पहले गिरफ्तार नही किया जा सकता है | ये बात दंड प्रक्रिया संहिता, सेक्शन 46 में निहित है |
3. पुलिस अफसर FIR लिखने से मना नही कर सकते, ऐसा करने पर उन्हें 6 महीने से 1 साल तक की जेल हो सकती है| ये आता है (Indian Penal Code) भारतीय दंड संहिता , 166 A के अंतर्गत |
4. कोई भी शादीशुदा व्यक्ति किसी अविवाहित लड़की या विधवा महिला से उसकी सहमती से शारीरिक सम्बन्ध बनाता है तो यह अपराध की श्रेणी में नही आता है | (Indian Penal Code) भारतीय दंड संहिता व्यभिचार, धारा ४९८
5. यदि दो वयस्क लड़का या लड़की अपनी मर्जी से लिव इन रिलेशनशिप में रहना चाहते हैं तो यह गैर कानूनी नही है | और तो और इन दोनों से पैदा होने वाली संतान भी गैर कानूनी नही है और संतान को अपने पिता की संपत्ति में हक़ भी मिलेगा | इसको (Domestic Violence Act) घरेलू हिंसा अधिनियम , 2005 के अंतर्गत बताया गया है
6. कोई भी कंपनी गर्भवती महिला को नौकरी से नहीं निकाल सकती, ऐसा करने पर अधिकतम 3 साल तक की सजा हो सकती है| ये मातृत्व लाभ अधिनियम, १९६१के अंतर्गत आता है |
7. तलाक निम्न आधारों पर लिया जा सकता है : हिंदू मैरिज एक्ट के तहत कोई भी (पति या पत्नी) कोर्ट में तलाक के लिए अर्जी दे सकता है। व्यभिचार (शादी के बाहर शारीरिक रिश्ता बनाना), शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना, नपुंसकता, बिना बताए छोड़कर जाना, हिंदू धर्म छोड़कर कोई और धर्म अपनाना, पागलपन, लाइलाज बीमारी, वैराग्य लेने और सात साल तक कोई अता-पता न होने के आधार पर तलाक की अर्जी दाखिल की जा सकती है। इसको हिंदू मैरिज एक्ट (Hindu Marriage Act) की धारा-13 में बताया गया है |
8. कोई भी दुकानदार किसी उत्पाद के लिए उस पर अंकित अधिकतम खुदरा मूल्य से अधिक रुपये नही मांग सकता है परन्तु उपभोक्ता, अधिकतम खुदरा मूल्य से कम पर उत्पाद खरीदने के लिए दुकानदार से भाव तौल कर सकता है | अधिकतम खुदरा मूल्य अधिनियम, 2014
संज्ञेय अपराध (Cognisable Offence) क्या है
आप यहाँ हमसे कोई भी कानून से सम्बंधित सीधा सवाल भी पूछ सकते है, नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स की सहायता से आप अपना क्वेश्चन पोस्ट कर सकते है जिसका हम जल्द से जल्द जवाब देने का प्रयास करेंगे | यदि क्वेश्चन के अलावा और कुछ भी शंका कानून को लेकर आपके मन में हो या इससे सम्बंधित अन्य कोई जानकारी प्राप्त करना चाहते है, तो आप हमसे बेझिझक पूँछ सकते है |
जज (न्यायाधीश) कैसे बने
6 thoughts on “भारतीय कानून की जानकारी | परिभाषा, अधिकार, नियम | Indian Law in Hindi”
498 a agar koi patni apne pati ke uper galat tarike se fasana chahe to bachane ke liye kya kare
Tab uski baat man lo
यदि पुलिस fir नहीं लिखतिह् तो उसके खिलाफ कहा शिकायत करें जिससे उस पर कार्यवाही हो सके आपके दवारा दी गई जानकारी बहुत अच्छी लगी।
1. संज्ञेय अपराध होने पर भी यदि पुलिस FIR दर्ज नहीं करती है तो आपको वरिष्ठ अधिकारी के पास जाना चाहिए और लिखित शिकायत दर्ज करवाना चाहिए.
2. अगर तब भी रिपोर्ट दर्ज न हो, तो CRPC (क्रिमिनल प्रोसीजर कोड) के सेक्शन 156(3) के तहत मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट की अदालत में अर्जी देनी चाहिए. मैट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट के पास यह शक्ति है कि वह FIR दर्ज करने के लिए पुलिस को आदेश दे सकता है.
3.सर्वोच्च न्यायालय ने प्राथमिकी अर्थात FIR दर्ज नहीं करने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने के आदेश भी जारी किए हैं. न्यायालय ने यह भी व्यवस्था दी है कि FIR दर्ज होने के एक सप्ताह के अंदर प्राथमिक जांच पूरी की जानी चाहिए. इस जांच का मकसद मामले की पड़ताल कर अपराध की गंभीरता को जांचना है. इस तरह पुलिस इसलिए मामला दर्ज करने से इंकार नहीं कर सकती है कि शिकायत की सच्चाई पर उन्हें संदेह है.
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Law and Society: The Indispensable Bond of Justice in India
India, with its rich tapestry of history, culture, and diversity, stands as a testament to the resilience and strength of democracies. At the heart of this democracy lies a complex yet cohesive system: the law. Serving as the backbone of any civilized society, it’s more than just a collection of rules and regulations; it manifests a nation’s values, beliefs, and aspirations. These concepts are regularly explored by a case brief writing service and similar services to understand the theoretical and practical implications of legal practices in society.
LAW AND JUSTICE IN INDIA
In India, where the dynamics of tradition and modernity constantly interplay, the law acts as a balancing force, guiding the country toward progress while ensuring justice, equity, and order. This article delves deep into the essence of law and justice in India, shedding light on its significance, evolution, and pivotal role in shaping the fabric of Indian society.
The law is termed as a system of rules that are enforced through social institutions to govern behavior. It is normally assumed as a rule or mode of conduct that is prescribed and enforced by the supreme controlling authority. The jurisprudence that is a philosophy of law elaborates and asks questions such as ‘what is law’ and ‘what it should be.’
Maintaining law and order in a society enables people to follow the societal code of conduct. They can be obtained if the vast majority of the population respects the rule of law and where enforcement agencies observe rules that limit their powers. Establishing and maintaining legal practices implies firm dealing with occurrences of theft, violence and disturbance of peace and rapid enforcement of penalties imposed under criminal law. The importance and implementation of it is an integral part of society. The word ‘law’ might strike fear in the minds of people. In truth, it is not enforced to scare individuals of society rather it is implicated as a basis for society.
Importance of Law:
Without the law in society, we would have no structure. It ensures protocol at various places to ensure protection, equality and justice. We use it whenever we make a purchase or to conduct a business. Ir is implemented to achieve peace in a society where individual freedom is valued. Without the law, or enforcing agencies we would experience chaos and havoc, and it would be the survival of the fittest. We need it as it warrants order and stability in our society. It aids people in making decisions that are consistently based on social morality and code of conduct. This act is to abide by the law.
The reason that most people obey the law is to fear punishment or to avoid punishment. According to social values and norms, we are placed in situations or positions that can humiliate us if we commit a crime. It is mandatory for a society as it serves as a norm of conduct for citizens. It is also made to provide proper guidelines and order and to sustain the equity in all the departments of government. The law is necessary to attain as it keeps society running. Without it, there would be conflicts in social classes and groups.
The law is normally based on common sense assumptions. For example; drive slowly, don’t drive drunk, respect others and their belongings, etc. Some are used to continue the business such as trade, sales, and immigration. The law is established to provide protection to the victims and to punish those who have done unlawful acts. Moreover, to fulfill social needs, there is a provision in a constitution which must have to abide by. It is a form of social science, likewise; society and law are interrelated. The legal framework provides rules and regulations to live a social life, and it also increases with the economic, scientific and technological processes. Along with the change in the society, the law also changes and plays an integral part in the fulfillment of social needs.
The Pillars of Law: Protection, Equality, and Justice
Protection: safeguarding citizens and their rights.
In a vast and diverse nation like India, the law plays a pivotal role in safeguarding the rights and interests of its citizens. From property rights to personal safety, it protects against potential threats, ensuring everyone can lead a life free from harm and injustice. In scenarios ranging from business transactions to personal disputes, it offers a framework to ensure that the rights of individuals are not trampled upon.
Equality: The Foundation of a Just Society
India’s constitution enshrines the principle of equality, emphasizing that every citizen, regardless of caste, creed, gender, or economic status, is equal in the eyes of the law. This foundational principle ensures that no section of society is marginalized or denied their rights. In a country that historically grappled with societal divisions, the emphasis on legal equality seeks to bridge the gaps, ensuring that every individual has an equal shot at opportunities and justice.
Justice: The Ultimate Aim
In many ways, justice is the ultimate goal of any legal system. The intricacies of the law, its rules, and its regulations all converge towards this singular objective – to ensure that justice is served. In India, the legal system is continuously evolving to meet this aim. While challenges persist, the Indian judiciary, backed by the robust framework of its legal practices, works tirelessly to ensure that justice is not just a theoretical concept but a lived reality for its citizens.
Why Law is Paramount?
Without the law in society, we would have no structure. It ensures protocol at various places to ensure protection, equality and justice. We use a legal system whenever we purchase or conduct a business. It is implemented to achieve peace in a society where individual freedom is valued. Without such rules, we would experience chaos and havoc, and it would be the survival of the fittest. We need it as it warrants order and stability in our society. It aids people in making decisions consistently based on social morality and code of conduct. Its importance is constantly reevaluated by scholars in their papers, by parents in their conversation with children, and by children when they study and write law essays.
The Fluidity of Law: Adapting with Times
The law is normally based on common sense assumptions. For example, drive slowly, don’t drive drunk, respect others and their belongings, etc. Other rules are used to continue the business, such as trade, sales, and immigration. The law is established to protect the victims and punish those who have done unlawful acts. Moreover, to fulfill social needs, there is a provision in the constitution that must abide by. It is a form of social science that provides rules and regulations to live a social life, and it also increases with the economic, scientific and technological processes. Along with the change in society, the legal system also changes and plays an integral part in fulfilling social needs.
The intricate dance between law and society is a testament to the enduring spirit of justice and order. In India, where history, tradition, and modernity converge, the law serves as a rulebook and the heartbeat of its democratic ethos. It offers protection, ensures equality, and relentlessly pursues justice. While challenges and nuances persist, the commitment to a just and equitable society remains unwavering. The law stands not as a mere set of rules but as the very foundation upon which the dreams and aspirations of a billion people rest, guiding India’s journey toward a brighter, more just future.
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Essay on the Judicial System of India | Hindi
Here is an essay on the judicial system of India especially written for school and college students in Hindi language.
न्यायपालिका का सशक्तिकरण व लम्बित मुकदमों का निपटारा विषय पर नई दिल्ली के विज्ञान भवन में इंडियन ला इंस्टीट्यूट व विधि एवं न्याय मंत्रालय भारत सरकार द्वारा 24 व 25 अक्टूबर 2009 को दो दिवसीय सेमिनार का आयोजन किया गया ।
सौभाग्य से मुझे भी देश के विद्वान कानूनविदों से रूबरू होने का अवसर प्राप्त हुआ । सेमिनार का शुभारम्भ भारत के मुख्य न्यायधीश महामहीम श्री के.जी. बालाकृष्णन जी ने दीप जलाकर किया । सेमिनार को भारत के सोलिसिटर जनरल आदि ने सम्बोधित करते हुए न्यायिक सुधारों की बात कही ।
इस अवसर पर भारत के विधि एवं न्याय मंत्री मा॰ वीरप्पा मोईली ने नक्सलवाद का कारण न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को बताया तो भारत के वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा कि गरीबों को न्याय मिलने में देरी के कारण कानून हाथ में लेने की प्रवृति बढ़ती जा रही है सेमिनार में भारत के विधि मंत्री द्वारा न्यायिक सुधारों का प्रपत्र वितरित किया गया जिसमें कहा गया कि देश में तीन करोड़ मुकदमे निचली अदालतों में, सैंतीस लाख मुकदमें उच्च न्यायालयों में तथा पचास हजार मुकदमें सर्वोच्च न्यायालय में लम्बित हैं ।
जिनके निपटारे हेतु पन्द्रह हजार जजों को दो वर्षो के अनुबन्ध पर लिया जाये जिसके लिए पचास हजार रूपये प्रतिमाह वेतन दिया जाये । तीन पालियों में कोर्ट का समय रखा जाये प्रात: 7 बजे से 12 तक, दोपहर 2 बजे से 6:30 बजे व सांय 7 बजे से रात्रि 12 बजे तक ।
700 जज उच्च न्यायालय में एक लाख रूपये वार्षिक प्रतिमाह वार्षिक अनुबन्ध पर रखने का प्रस्ताव रखा गया जो पच्चीस सौ केस प्रतिवर्ष निस्तारित करेंगे । कोर्ट मैनेजर के रूप में फ्रैस लॉ ग्रेजुएट या एम.बी.ए. को नियुक्त करने का प्रस्ताव रखा ।
यूएसए की तर्ज पर कागज विहीन न्यायालय करने का विचार जिसे ई-कोर्ट नाम दिया गया । जल्द ही ग्राम न्यायालय एक्ट लागू करने की बात कही जिससे पंचायत में ही लघु वादों का निपटारा हो सकेगा । कोर्ट फीस के तौर पर आईपीओ लागू करने का विचार ।
साथ ही विडियों कानफ्रेसिंग के माध्यम से अभियुक्त के ब्यान न्यायालय में दर्ज हो ताकि ट्रांसपोर्ट, सुरक्षा तथा पुलिस फोर्स की समस्या से निपटा जा सके । वर्तमान में ये बताया गया कि जिला एवं सत्र न्यायालयों में 16721 पदों में सें 2998 पद रिक्त हैं, उच्च न्यायालयों में 886 पदों में से 234 पद रिक्त है तथा सर्वोच्च न्यायालय में 31 में से 7 पद रिक्त हैं ।
सरकार के उक्त सुझावों को देश के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री रामजेठमलानी ने नकार दिया उन्होने कहा कि लम्बित मुकदमों को निपटारे के लिए, जजों की संख्या को बढ़ाने एवं ढांचागत सुविधा में सुधार करने का प्रस्ताव होना चाहिए था न कि अनुबन्धित जजों की नियुक्ति का ।
ADVERTISEMENTS:
जिनका उक्त प्रपत्र में जिक्र नहीं है जबकि दूसरे वरिष्ठ अधिवक्ता अधिअर्जुना ने प्रस्तावित योजना की सराहना की । उक्त सेमिनार में देश के उच्च न्यायालयों के न्यायधीश, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश, विधि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, लॉ विद्यार्थी, सर्वोच्च व उच्च न्यायालयों के अधिवक्ताओं ने भाग लिया था ।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश श्री बीएस चौहान ने सेमिनार में बोलते हुए कहा कि सिविलवाद बेटा फाईल करता है लेकिन वाद के चलते वादी वृद्ध होकर स्वर्गवासी हो जाता है तदोपरान्त उसका बेटा वादी बनता है वाद चलता रहता है लेकिन निस्तारण नहीं हो पाता ।
पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश जस्टिस ठाकुर ने तीन पाली न्यायलय को अनुचित बताया और कहा कि सांय 7 बजे रात्रि 12 बजे से कौन वकील उपस्थित रह सकता है अर्थात अनुचित सुझाव है ।
दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश श्री ए.पी. शाह द्वारा अनुबन्धित जजों को अनुचित बताया कि केवल 2 वर्ष के लिए कौन वकील जज बनने के लिए आयेगा । उक्त सभी के अलावा किसी का भी ध्यान न्याय में गुणवत्ता व न्यायपालिका में भ्रष्टाचार जजों की योग्यता की ओर किसी भी वक्ता का ध्यान नहीं गया जो कि आज एक महत्वपूर्ण विषय है जिस पर चर्चा कराना अति आवश्यक है ।
न्याय गुणवत्ता विहीन हो गया है । भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है गरीबों के लिए न्याय पाना रेगिस्तान में पानी ढूंढने के समान है । देश के मुख्य न्यायधीश श्री के.जी. बालाकृष्णन जी ने भी न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की बात को स्वीकार किया है ।
तुलसी दास जी की पंक्ति आज भारतीय न्याय व्यवस्था के संदर्भ में सही बैठती है कि ”समरथ को नहीं दोष गुसाई” अर्थात ताकतवर के लिए कोई दोष नहीं है वह कुछ भी करे । कुछ इस तरह-
कुछ नहीं होगा किसी का,
कुछ भी कर लो बच जाओगे ।
सबूत के अभाव में छूट जाओगे ।।
सबूत मिले भी तो क्या,
न्याय बिकता है यहाँ ।
पैसे के सभी पुजारी यहाँ ।
भ्रष्ट हैं कुछ अधिकारी यहाँ ।।
राजा रहता है कुर्सी बचाने में ।
मंत्री रहते हैं पैसा कमाने में ।।
अधिकारी रहते हैं ट्रांसफर बचाने में ।
प्रजा जाये भाडखाने में ।।
सरकार का है सर्व शिक्षा अभियान ।
शिक्षा माफियाओं का है पैसा बना अभियान ।
तभी तो अजय कहता है
ये है मेरा भारत महान ।
सर आइवर जेनिग्स के अनुसार भारतीय संविधान वकीलों का स्वर्ग है । उक्त कथन भारत में लागू सभी कानूनों के सन्दर्भ में भी प्रसंगिक है । ब्रिटिश विधिवेत्ता प्रोफेसर डायसी के विधि के शासन का सिद्धान्त (रूल ऑफ लॉ) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रयुक्त विधि के समक्ष समानता के वाक्यांश में मिलता है अर्थात भारत में कानून सबके लिए समान है लेकिन आज के परिदृश्य में दोनों ही कथनों के भिन्न-भिन्न अर्थ हैं ।
आज वकीलों के स्वर्ग का अर्थ है केवल वकीलों और अपराधियों के लिए ही स्वर्ग । अर्थात आज कानून मात्र वकीलों की रोजी-रोटी का साधन बन गया है । ये अमीरों के लिए खिलौना है तो गरीबों के लिए फिर भी आज कानून ही है । जिससे भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 भी अपने आप में सार्थक नहीं दिखता है ।
आज कानून वकीलों के लिए पैसा कमाने का साधन है न कि न्याय दिलाने के लिए साधना । ”न्याय में देरी न्याय न मिलने के समान है” जो अपराधी के लिए स्वर्गगाह है परन्तु पीड़ित के लिए असहनीय नर्क समान है जिसका परिणाम ही आज नक्सलवाद के रूप में सामने आ रहा है ।
नक्सलवाद किसी एक घटना का परिणाम नहीं है बल्कि बहुत लम्बे समय तक उपेक्षित और पिछड़ेपन का परिणाम है । साथ ही परिणाम है यह उस लोकतांत्रिक व्यवस्था का जो इनको अच्छा नागरिक बनाने के स्थान पर नक्सलवाद की ओर ले गई ।
आज कानून का भय समाप्त हो गया है क्योंकि भारतीय कानून: स्वर्ग है । जिसमें फांसी की सजा पाये मुजरिम भी लम्बे समय तक सरकारी मेहमान बने रह सकते हैं । अफजल गुरू, सुशील शर्मा प्रियदर्शनी हत्याकाण्ड के दोषी सजा सुनाये जाने के बाद भी आज सरकारी मेहमान हैं ।
क्योंकि भारतीय कानून स्वर्ग है । मुम्बई बम्ब ब्लास्ट के आरोपी अबू सलेम भी अभी सरकारी मेहमान हैं । जो भारतीय कानून का स्वाद ले रहे हैं । जिससे अपराधियों के हौसले अत्याधिक बुलन्द होते जा रहे हैं । लगभग 3 करोड़ मुकदमें अदालतों में लम्बित हैं ।
पीड़ित न्याय के लिए तरस रहे हैं लेकिन सरकारें चेन की नींद सो रही हैं । वर्तमान समय में भारतीय कानून वकीलों व अपराधियों के लिए स्वर्गगाह बन गया है । वर्तमान समय में आवश्यकता है कि भारतीय संवधिान का पुर्ननिर्माण हो । भारतीय कानूनों की समीक्षा हो जो अपराधी को उसके किये की सजा दिलाये न की उसको बचाये ।
भारतीय कानूनों को पढ़कर ऐसा लगता है कि मानों आरम्भिक धाराए सभी कानूनों में एक जैसी नकल की गई हों । भारतीय कानून भारतीय परिस्थितियों के अनूरूप नहीं है । इसलिए आवश्यकता है इसको बदलने की । इनमें अपराधियों को बचने के विकल्प मौजूद हैं ।
“यूवी जस हबी रेमेडियम” रोमन लॉ की उक्ति का तात्पर्य है कि जहां अधिकार है वहां उपचार विद्यमान है । अर्थात अधिकार भंग होने पर उपचार मिलता है । लेकिन भारतीय परिस्थितियों में अधिकार तो है लेकिन उपचार के लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ सकता है । जो कि 1 वर्ष से लेकर 25 वर्ष तक भी हो सकता है । इतने समय में तो पीड़ित का धैर्य अपने आप ही नष्ट हो जायेगा और आरोपी और अधिक मनोबल के साथ अपराध करेगा ।
भोपाल गैस त्रासदी का निर्णय 23 वर्ष बाद आया वो भी इतना कमजोर कि देश ही नहीं विदेशों में भी उक्त निर्णय की आलोचना हुई । जिसमें हजारों लोगों के हत्यारे युनियन कार्बाइड कम्पनी के चैयरमेन एंडरसन को सजामुक्त तथा अन्य सह आरोपियों को मामूली सजा । इससे भारतीय न्याय व्यवस्था की पोल खुलती है जो स्पष्ट रूप से इंगित करती है ।
कि कोई भी धनाड़य भारतीय न्याय व्यवस्था को चकमा दे सकता है वो भी कुछ इस तरह कि यदि किसी धनाड़य व्यक्ति पर कोई आपराधिक मुकदमा पंजीकृत होता है तो सबसे पहले मुकदमें के विवेचक से सांठ-गाठ करके पंजीकृत धाराओं में से संगीन धाराओं को विवेचना में हटवा दीजिए क्योंकि धाराओं को हटाना जोड़ना विवेचक के विवेकाधीन है (समझो अभियुक्त को सजा से मुक्ति मिल गई) संगीन धारा कम होने पर अभियुक्त यदि जेल में है तो जमानत तो आरोपत्र दाखिल होते ही मिल जायेगी ।
बाकी परीक्षण के दौरान कभी उपस्थिति माफी प्रार्थना पत्र लगवाओ कभी-कभी उपस्थित हो जाओ परीक्षण काफी लम्बे समय तक चलता रहेगा कभी वकील साहब बीमार तो कभी वकीलों की हड़ताल, कभी डाक्टर, कभी विवेचक, कभी गवाह नहीं आयेगा उनको सम्मन कराओ, कभी प्रार्थना पत्र लगवाओ, कभी अभियुक्त बीमार तो कभी कोर्ट की छुट्टी ।
कुछ इस तरह 20 वर्ष से 25 वर्ष तो लग ही जायेगें । यदि दुर्भाग्य से निर्णय की तारीख आ भी जाये तो बिना देर किये सम्बन्धित कोर्ट के कोर्ट बाबू (पेशकार) से मिलिये तो वो साहब से मामला तय करके आपको बता देगा कि आपका निर्णय आपके हक में आने के लिए कितना खर्चा आयेगा सौदा तय होने पर चिन्हित जगह पर जाकर पेशकार को तय खर्चा दे दीजिए आपका निर्णय आपके पक्ष में आयेगा ।
यदि किसी कारणवश सौदा तय नहीं होता है तो परेशान होने की आवश्यकता नहीं है यदि निर्णय आपके विरूद्ध भी आता है तो या तो उक्त कोर्ट तुरन्त ही जमानत दे देगी यदि जमानत नहीं भी दी जाती है तो आप उच्च न्यायालय में निर्णय के विरूद्ध अपील कर सकते हैं ।
सम्भवत: उच्च न्यायालय आपको सहुलियत दे सकता है और उच्च न्यायालय में आमतौर पर 5 वर्ष से 6 वर्ष का समय तो लग ही जायेगा । माना उच्च न्यायालय का निर्णय भी अभियुक्त के विरूद्ध आता है तो अभियुक्त सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकता है जहां पर 2 वर्ष से 3 वर्ष तो लग ही जायेंगे ।
इस तरह लगभग 30 वर्ष से 35 वर्ष का समय घटना घटित होने से लेकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय आने तक लग सकता है और यदि निर्णय फांसी की सजा का है तो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 के अन्तर्गत महामहीम राष्ट्रपति के सम्मुख दया याचिका दाखिल कर सकते हैं । जिसका निस्तारण होने में आमतौर पर 3 वर्ष से 4 वर्ष का समय लग सकता है । जिसका सीधा-सीधा लाभ अभियुक्त को मिलेगा ।
जैसा कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सन् 1983 में टी.वी. वथीश्वरन बनाम तमिलनाडु राज्य के मामले में फांसी की सजा को आजीवन कारावस में तबदील कर दिया गया था । इस मामले में मुजरिम की दलील थी कि फांसी में देरी से सजा पाया व्यक्ति पल-पल मौत से गुजरता है इसलिए इसकी मौत की सजा को आजीवन कारावास में तबदील किया जा सकता है ।
लेकिन बाद में शेरसिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट की पुर्ण पीठ ने फैसला लिया और अपने पिछले निर्णय में संशोधन करते हुए कहा कि अन्तिम रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता कि फांसी की प्रतिक्षा की किस अवधि को इतना गम्भीर माना जाये जिससे मृत्यु दण्ड को आजीवन कारावास में बदला जा सके ।
इस प्रक्रिया तक पहुंचने में लगभग 35 वर्ष से 40 वर्ष का समय लग सकता है । यदि मान लिया जाये घटना घटित होने के समय अभियुक्त की आयु 30 वर्ष थी जो अन्तिम निर्णय तक पहुंचने में 70 वर्ष हो गई । माना अभियुक्त को आजीवन कारावास की सजा हो भी जाती है तो क्या वह सजा पूरी कर पायेगा ? अर्थात नहीं । क्योंकि उसकी उम्र अब कितनी बचती है इसका अन्दाजा अच्छी तरह लगाया जा सकता है ।
ये तो भारतीय न्याय व्यवस्था का एक छोटा सा उदाहरण मात्र है बाकी इससे भी दो कदम आगे जाते हुए भोपाल गैस त्रासदी में हजारों लोगों की हत्या के आरोपियों को मुकदमें में धारा 304(2) आई.पी.सी. के स्थान पर 304(1) आई.पी.सी. के तहत मुकदमा चलाने के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश सर्वोच्च न्यायलय ए.एम. अहमदी के आदेश की आलोचना भी देश के बुद्धिजीवियों द्वारा मीडिया आदि में सुनी व देखी गई है ।
इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि भारतीय न्याय व्यवस्था कितनी स्वच्छ, पवित्र, निष्पक्ष व गुणवत्तापरक है । भारत में जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ न्यायिक व्यवस्था का ढांचा न बढाया जाना भारतीय जनमानुष के साथ इतिहास का सबसे बड़ा रेखा है जिसके लिए आजादी के बाद से आज तक कि सभी केन्द्र व राज्य सरकारें उत्तरदायी हैं ।
जो देश की जनता को समय से न्याय उपलब्ध न करा सकी । जिसके दुष्परिणाम देश के सम्मुख मौजूद हैं । जो और अधिक बढ रहे हैं । ये तो थी हमारी न्याय व्यवस्था । जो किसी भी आरोपी को जिसने कितना ही जघन्य अपराध किया है उसको जिन्दा रहने व बचने के अत्यधिक अवसर प्रदान करता है ।
जो गरीबों के लिए तो आज भी कानून, कानून है और न्याय व्यवस्था आज भी न्याय व्यवस्था ही है । भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए एक किवदंती है कि भारतीय कानून अन्धा है और न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बंधी है जिसका वास्तविक अर्थ है कि भारत में न्याय की देवी ने अपनी आंखों से पट्टी बांध रखी है ।
उसको कोई दिखाई नहीं दे रहा है चाहे वह अमीर है चाहे गरीब, कोई बड़ा आदमी है या छोटा आदमी, राजनेता है या आम आदमी, नौकरशाह है या कर्मचारी, भारतीय न्याय की देवी के दृष्टि में सभी समान है इसलिए उन्होने अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी है उन्हें कुछ दिखाई नहीं दे रहा है ताकि वे कोई भेदभाव न कर सकें ।
लेकिन वर्तमान समय में भारतीय न्याय व्यवस्था में उक्त किवदंती का कुछ अलग ही अर्थ लगाया जा रहा है जिसके प्रति आम भारतीयों का विचार है कि कानून अंधा होता है उसको कुछ भी दिखाई नहीं देता वह निर्दोष को भी सजा दे देता है और दोषी को बचा देता है ।
ऐसे सैकड़ों-हजारों उदाहरण भारतीय न्याय व्यवस्था में देखने को मिल जायेंगे । जब निर्दोष लोगों को बिना किसी अपराध के सजा भुगतनी पड़ी है जो मुख्यताया दहेज सम्बन्धी मामलों में देखा गया है साथ ही आपसी रंजिश के मुकदमों में भी मुख्य आरोपी के अलावा अधिकतर सह आरोपी कुछ को छोड्कर फर्जी तरीके से नामजद किये जाते हैं और सजा पाते हैं ।
जैसे दहेज सम्बन्धी मुकदमों में मुकदमा कर्ता मुख्य रूप से वधु के पति, सास-ससुर, देवर, ननद आदि को आरोपी बनाते हैं चाहे उक्त सभी लोगों का दहेज उत्पीड़न में कोई भूमिका हो या न हो लेकिन आरोपी तो सभी को बनाया जाता है ।
यह आवश्यक नहीं है कि देवर या ननद व सास-ससुर द्वारा दहेज के लिए उत्पीड़न किया गया हो या न किया हो परन्तु सजा तो सभी को भुगतनी पड़ेगी जिसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है भारतीय पुलिस जो किसी भी फर्जी मुकदमे को दो गवाहों के द्वारा वास्तविक बना देती है बाकी कमी को विवेचक आरोप पत्र तैयार करके पूरा कर देते हैं उससे भी महान हमारी न्याय व्यवस्था है जिसमें कुछ को छोड्कर अधिकतर मजिस्ट्रेट महोदय केवल प्राथमिकी में दर्ज धाराओं को देखते हैं मुकदमें के तथ्य या परिस्थिति पर कोई ध्यान नहीं देते और फर्जी मुकदमे की धाराओं के आधार पर ही आरोपी को जेल भेज दिया जाता है ।
परीक्षण चलता रहता है और अन्त में सजा भी हो जाती है क्योंकि मजिस्ट्रेट महोदय या जज सहाब के ऊपर कार्य का भार इतना अधिक होता है कि वे मुकदमें के तथ्यों पर प्रथम दृष्टया तो ध्यान दे ही नहीं पाते और निर्दोष भी सजा पा जाते हैं । जबकि भारतीय न्याय व्यवस्था का एक सिद्धान्त है कि सौ गुनाहगार बेशक छूट जायें लेकिन एक भी बेगुनाह को सजा नहीं होनी चाहिए । लेकिन उक्त सिद्धान्त वर्तमान परिदृश्य में अप्रसांगिक है ।
आमतौर पर भारतीय ग्रामीण जनता में रंजिश चलती रहती है जिसमें फर्जी मुकदमें आदि कराने का सिलसिला भी बाखूबी चलता है जिसके अन्तर्गत किसी भी दरोगा से मिलकर झूठे गवाह तैयार करके ऐसे लोगों के नाम फर्जी मुकदमे पंजीकृत करायें जाते हैं जो न तो घटना ही घटित होती है और न ही उक्त लोग किसी भी घटना स्थल पर मौजूद होते हैं लेकिन भारतीय पुलिस की महरवानी से सब कुछ प्लानिंग के द्वारा करा दिया जाता है और उक्त लोग सजा भी पा जाते हैं क्योंकि परीक्षण न्यायालय में सबूत और ग्वाह पेश किये जाते हैं उन्हीं के आधार पर सजा पाना निश्चित होता है ।
जब किसी फर्जी मुकदमे को दर्ज कराया जाता है तो उसके लिए पूरा होमवर्क किया जाता है ताकि न्यायालय में मुकदमा फर्जी न सिद्ध हो जाये इसलिए प्राथमिकी दर्ज कराने से लेकर परीक्षण चलने तक जिसमें साक्ष्य व ग्वाही आदि सभी पर विशेष ध्यान दिया जाता है और न्यायधीश महोदय भी फर्जी मुकदमों को नहीं पहचान पाते हैं तथा बेगुनाह भी सजा पा जाते हैं ।
जबकि वास्तविक अपराधों में किस प्रकार से शह मात का खेल चलता है जिसमें भी महत्वपूर्ण भूमिका भारतीय पुलिस की ही होती है जो अपराधी को बचाने का पुख्ता इंतजाम करती है जिसका प्रारम्भ प्राथमिकी दर्ज कराने से ही होता है इसके लिए पुलिस संज्ञेय अपराध को भी असंज्ञेय मानकर जमानती धाराओं में मुकदमा पंजीकृत कराती है उसके बाद विवेचना में आरोप पत्र को हल्का कर दिया जाता है ।
परीक्षण के दौरान ग्वाही बदली जाती है और अपराधी बिना सजा के ही बच जाता है ऐसे कई उदाहरण आपके सामने प्रस्तुत हैं जिनमें अपराधी अपराध करके बच निकलते हैं । एक व्यक्ति को गांव में ही दिन के सुबह लगभग दस बजे गांव के ही कुछ लोगों के सामने देशी तमंचा के द्वारा गांव के ही एक लड़के ने गोली मार दी, गोली लगते ही वह व्यक्ति लहूलुहान अवस्था में जमीन पर बेहोश होकर गिर गया । गोली मारने वाला लड़का अपने साथी के साथ आराम से निकल गया ।
घायल व्यक्ति को अस्पताल में भर्ती कराया गया । गोली पेट में लगी थी सौभाग्य से वह व्यक्ति बच गया । प्राथमिकी दर्ज की गई । गोली मारने वाले व्यक्ति ने न्यायालय में आत्मसमर्पण कर दिया । मजिस्ट्रेट महोदय ने आरोपी को जेल भी भेज दिया ।
कुछ महीने जेल में रहने के बाद माननीय उच्च न्यायालय ने जमानत स्वीकार कर लिया और आरोपी जेल से बाहर आ गया । परीक्षण चला, परीक्षणोपरान्त तमाम गवाहों व मेडिकल रिपोर्ट व स्वयं पीडित व्यक्ति द्वारा दिये गये ब्यानों के आधार पर माननीय न्यायालय द्वारा गोली मारने वाले व्यक्ति को निर्दोष करार दे दिया गया ।
जबकि समस्त गांव जानता है कि उसी ने सब लोगों के सामने गोली मारी थी । फिर भी माननीय न्यायालय द्वारा उसको निर्दोष करार दिया गया । आखिर कहां कमी रह गयी जो मुजरिम सजा से बच गया । इसी से जाहिर होता है कि व्यवस्था में कहीं न कहीं तो कुछ न कुछ कमी अवश्य है जो मुजरिम सजा से बच गया और पीड़ित की इतनी सामर्थ्य नहीं कि वह उच्च न्यायालय में अपील कर सकता इसलिए पीड़ित भी मन मशोस कर रह गया और आरोपी का और अधिक हौसला बढ़ गया जिससे उत्साहित होकर वह और अधिक अपराध करता गया है तथा पीड़ित न्याय व्यवस्था को दोषी ठहराता हुआ चुपचाप बैठ जाता है, क्योंकि वह इसके अलावा और कुछ कर भी नहीं सकता ।
न तो उसके पास उच्च न्यायालय के वकीलों की फीस देने को पैसा है और न ही आने-जाने को किराया जो पांच सौ किलोमीटर दूर उच्च न्यायालय में पैरवी कर सके । भारतीय संविधान का अनुच्छेद-39(क) दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 304, सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 का आदेश-33 निशुल्क विधिक सहायता का प्रावधान करता है सरकार द्वारा अभियोजन अधिकारी भी न्यायालय में रखे हुए हैं लेकिन उनका कार्य मात्र मुकदमों में रिपोर्ट लगाकर पेश करना मात्र है उन्हे किसी गरीब को न्याय दिलाने में कोई दिलचस्पी नहीं है जो पीड़ित किसी मुकदमे में स्वयं रूचि लेते हैं उन्होंने अपने निजी खर्च पर वकील रखे हुए हैं और जिन मुकदमों में पीड़ित अभियोजन अधिकारी के भरोसे पर होते हैं वे पीड़ित न्याय से तो वंचित होते ही हैं साथ ही न्याय में देरी की भी कोई सीमा नहीं होती है । आखिर व्यवस्था में कहां कमी है जो गरीब तक न्याय नहीं पहुंच रहा ।
दोषी लोगों के बचने का उपरोक्त एकमात्र उदाहरण नहीं है एक अन्य घटना में गांव में ही कुछ लोगों द्वारा एक महिला को उसके घर में घुसकर बर्बरतापूर्वक लाठी डंडों से गांव के ही लोगों के सामने पीटा गया । महिला अस्पताल में भर्ती की गई प्राथमिकी भी दर्ज की गई, आरोपी जेल भी गये, जमानत भी हुई, परीक्षण न्यायालय में पीड़ित महिला का निजी अधिवक्ता भी पैरवी में रहा लेकिन तदोपरान्त आरोपियों को धारा 452, 504, 506, 509, 354 आई.पी.सी. में न्यायालय द्वारा निर्दोष करार दिया गया है ।
जबकि कानूनविदों के अनुसार 354 आई.पी.सी. के अपराध में पुलिस विवेचना भी आवश्यक नहीं है ऐसा पुलिस नियमावली प्रावधान करती है । साथ ही रूपन दयोल बजाज बनाम के.पी.एस. गिल के मामलें में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी धारा 354, 509 आई.पी.सी. में दिशा निर्देश जारी किये जा चुके है ।
उक्त सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए भी मेडिकल रिपोर्ट होने के बावजूद भी परीक्षण न्यायालय द्वारा आरोपियों को निर्दोष करार दिया जाना भारतीय न्याय व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाता है । जिससे सिद्ध होता है कि भारतीय न्याय व्यवस्था में कहीं न कहीं कुछ न कुछ त्रुटि अवश्य विद्यमान है जो अपराधियों को बचाने का कार्य कर रही है ।
एक अन्य घटना में भी कुछ लोगों द्वारा दिन में ही एक व्यक्ति को गोली मार दी गई । गोली लगने के बाद उस व्यक्ति ने घटना स्थल पर ही दम तोड़ दिया । गोली मारने वाले लोगों के विरूद्ध 302 आई.पी.सी. के अन्तर्गत मुकदमा पंजीकृत हुआ ।
वे जेल भी गये, जमानत भी मिली, सत्र न्यायालय में परीक्षण चला तदोपरान्त गोली मारकर हत्या करने वाले निर्दोष साबित हुए । पीड़ित पक्ष ने भी अधिक रूचि नहीं ली और मुजरिम सजा से बच गये न ही अभियोजन अधिकारी ने अपने कर्त्तव्य का पालन किया ।
सभी आपराधिक मामले सरकार बनाम मुजरिम के नाम से चलते हैं । अर्थात प्राथमिकी कोई भी दर्ज कराये लेकिन मुकदमा सरकार बनाम अपराधी के नाम से चलेगा यह स्पष्ट है कि सरकार पीडित पक्ष की ओर से स्वयं मुकदमा लड़ती है अभियोजन अधिकारी सरकार ही नियुक्त करती है जो प्रत्येक मुकदमें में स्वयं वकालत करता है ।
उच्च न्यायालय स्तर पर भी सरकार ही अपने स्टैन्डींग काउन्सिल नियुक्त कर मुकदमों की पैरवी कराती है लेकिन इतना सब कुछ होने पर भी मुजरिम सजा से बच जाते हैं । ऐसे उदाहरणों की सूचि अत्यधिक लम्बी हैं जिनमें अपराधी अपराध करने के बावजूद भी परीक्षण न्यायालय से बच रहे हैं और ऐसे अपराधी ही समाज में संगठित अपराध कर रहे हैं जिससे पीड़ित व्यक्ति या तो चुपचाप सहन कर रहे हैं और जो सहन नहीं कर पा रहे हैं वो प्रतिशोध की भावना लिये अपराध की दुनिया में उतर रहे हैं जिस कारण समाज में रोज नये-नये गैंग पनप रहे हैं जिनका मूल कारण न्याय न मिलना ही है ।
अधिकतर अपराधियों की पारिवारिक पृष्ठभूमि पर अगर दृष्टिपात किया जाये तो यही तथ्य और सत्यता सामने आती है कि वह अपराधी जन्म से अपराधी नहीं था न ही उसके परिवार में कोई अपराधी था और न ही उसने कहीं अपराध की शिक्षा गृहण की । वह तो होनहार शिक्षित समाज का जिम्मेदार नागरिक था ।
लेकिन ”आदमी परिस्थितियों का नौकर है” उसकी परिस्थिति ऐसी बन गई कि न चाहते हुए भी उसको अपराध की दुनिया में कदम रखना पड़ा जिसके लिए कहीं न कहीं भारतीय न्याय व्यवस्था ही जिम्मेदार है । जो पीड़ित को न्याय न दिला सकी और उसको स्वयं ऐसे रास्ते पर चलने को मजबूर होना पड़ा जिस रास्ते पर उसको स्वयं पता है कि वह अधिक लम्बी दूरी नहीं चल सकता लेकिन ऐसा जानते हुए भी वह उसी रास्ते पर चलता रहता है क्योंकि उसके अन्दर एक ऐसी आग होती है एक ज्वालामुखी पनप रहा होता है प्रतिशोध का ।
जो प्रतिशोध के उपरान्त ही शान्त होता है और उसके बाद अपराध करना उस व्यक्ति का व्यवसाय बन जाता है और वह पेशेवर अपराधी के रूप में समाज में अपनी पहचान बनाता है तत्पश्चात अचानक किसी दिन पुलिस की गोली से एनकाउन्टर नाम की व्यवस्था में अपनी आपराधिक यात्रा का समापन कर इस दुनिया से विदा लेता है ।
ऐसे कम ही अपराधी इस देश में मौजूद हैं जो व्यवसायिक, शौक व आजीविका के लिए अपराध कर रहे हैं अन्यथा भारतीय न्याय व्यवस्था द्वारा जन्में अपराधियों की संख्या अत्यधिक है । दस्यु सुन्दरी फुलनदेवी का इतिहास किसी से छुपा नहीं है जो न्याय व्यवस्था की ही देन था अस्सी के दशक में सुन्दर नागर दुजाना भी न्याय व्यवस्था की ही देन थे जिन्होंने तत्कालीन राजनेताओं की नींद हराम कर दी थी ।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपराध का पर्याय बने महेन्द्र फौजी भी भारतीय न्याय व्यवस्था की उपज थे तो सतबीर गुर्जर मेवला भी इसी व्यवस्था की उपज कहे जा सकते हैं जो सम्पन्न परिवार में होने के बावजूद अपराध की दुनिया के बेताज बादशाह बने । उक्त सभी इसी व्यवस्था से जन्मे थे ।
ये कोई भी आपराधिक प्रवृत्ति के नहीं थे न ही अपराध करना इनका शौक था बल्कि इसी व्यवस्था ने इनको अपराध की दुनिया में कदम रखने को मजबूर कर दिया । पूर्वाचल माफिया ब्रजेश सिंह का इतिहास भी कुछ इसी तरह इंगित करता है जो होनहार विज्ञान स्नातक होने के बावजूद अपराध की दुनिया में पहुंच गया ।
जिसके लिए भारतीय न्याय व्यवस्था ही जिम्मेदार है जो किसी न किसी रूप में अपराध की दुनिया में पहुंचने पर मजबूर कर रही है । कुछ अपवादों को छोड दें और जेब तराशों, चाकू-छुरी, बाजों को तो अधिकतर अपराधों का मूल कारण न्याय में देरी व न्याय न मिलना ही है जो किसी भी होनहार जिम्मेदार नागरिक को प्रतिशोध स्वरूप अपराध करने को मजबूर कर अपराध की दुनिया में धकेलने के लिए बाध्य कर रहा है । जिसके लिए दोषी है भारतीय न्याय व्यवस्था ।
कुछ इस प्रकार:
मैं तेरे लिए दर-दर पर भटकता रहा
ठोकरें खाता रहा
मैं तड़पता रहा
जिंदगी से लड़ता रहा
बार-बार कहता रहा कि तुम मिलोगे,
मैं कहाँ-कहाँ नही गया तेरे लिए
पूर्व को मैं गया तेरे लिए
पश्चिम को मैं गया तेरे लिए
उत्तर-दक्षिण को भी गया तेरे लिए
आकाश को मैं गया तेरे लिए
पाताल भी मैं गया तेरे लिए
पर्वतों पर चढा तेरे लिए
समुद्र में भी गया तेरे लिए
पर तू ना मिला ना तेरा साया मिला
पर तेरा पता चला कि तू तो किसी
पैसे वालों का रखवाला बना
मैं फिर भी कहता रहा कि तुम मेरे हो
मुझे मिलोगे जरूर मिलोगे ! हे न्याय
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