HindiKiDuniyacom

भारत का संविधान पर निबंध (Constitution of India Essay in Hindi)

भारत का सर्वोच्च विधान संविधान है। यह हमारे कानून का संग्रहण है। इसे आम बोल-चाल की भाषा में ‘कानून की किताब’ भी कहते हैं। हमारा संविधान दुनिया का सबसे लम्बा लिखित संविधान है। हमारे देश में लोकतंत्रात्मक गणराज स्थापित है। इसकी सम्प्रभुता, और धर्म-निरपेक्षता इसे दूसरों से अलग करती है। अक्सर शैक्षणिक संस्थानों में निबंध प्रतियोगिताएं होती रहती है। खासकर राष्ट्रीय त्यौहारों के मौके पर। इसी बात को ध्यान में रखकर हम भारतीय संविधान पर कुछ छोटे-बड़े निबंध दे रहे हैं। इन्हें काफी आसान शब्दों में लिखा गया है।

भारत का संविधान पर छोटे-बड़े निबंध (Short and Long Essay on Constitution of India in Hindi, Bharat ka Samvidhan par Nibandh Hindi mein)

भारत का संविधान पर निबंध – 1 (250 – 300 शब्द).

जब-जब देश की गणतंत्रता की बात होगी, तब-तब देश के संविधान का नाम आना स्वाभाविक है। हमारा संविधान अनूठा संविधान है। संविधान को बनाने के लिए संविधान-सभा बनाई गई थी, जिसका गठन स्वतंत्रता पूर्व ही दिसम्बर, 1946 को हो गया था। संविधान को निर्मित करने के लिए संविधान-सभा में अलग-अलग समितियां बनाई गयी थी। इसका मसौदा बनाने का जिम्मा प्रारूप-समिति को दिया गया था, जिसके अध्यक्ष डाँ. भीमराव अम्बेडकर थे।

क्या है भारतीय संविधान

देश का कानून ही देश का संविधान कहलाता है। इसे धर्म-शास्त्र, विधि-शास्त्र आदि नामों से भी जाना जाता है। हमारा संविधान 26 नवंबर 1949 को अंगीकृत कर लिया गया था, और सम्पूर्ण भारत में इसके एक महीने बाद, 26 जनवरी 1950 से प्रभाव में आया। इसे पूर्णतः बनने में 2 साल, 11 महीनें और 18 दिनों का वक़्त लगा। इसके लिए 114 दिनों तक बहस चली। कुल 12 अधिवेशन किए गये। लास्ट डे 284 लोगों ने इस पर साइन किए।

भारतीय संविधान के निर्माता

संविधान सभा के प्रमुख सदस्यों में ‘पंडित जवाहर लाल नेहरू’, ‘डा. भीमराव अम्बेडकर’, ‘डा. राजेन्द्र प्रसाद’, ‘सरदार वल्लभ भाई पटेल’, ‘मौलाना अब्दुल कलाम आजाद’ आदि थे।

भारतीय संविधान की अनुच्छेद और सूचियाँ

भारत के संविधान में शुरूआत में 395 अनुच्छेद, 22 भाग और 8 अनुसूचियां थी, जो अब बढ़कर 448 अनुच्छेद, 25 भाग और 12 अनुसूचियां हो गयी हैं।

हमारे भारत का संविधान दुनिया का सबसे अच्छा संविधान माना जाता है। इसे दुनिया भर के संविधानों का अध्ययन करने के बाद बनाया गया है। उन सभी देशों की अच्छी-अच्छी बातों को आत्मसात किया गया है। संविधान की नज़र में सब एक समान है। सबके अधिकार और कर्तव्य एक समान है। इसकी दृष्टि में कोई छोटा नहीं, कोई बड़ा, न ही अमीर, न ही गरीब। सबके लिए एक जैसे पुरस्कार और दंड का विधान है।

Bharat ka Samvidhan par Nibandh – निबंध 2 (400 शब्द)

संविधान बनने से पहले देश में भारत सरकार अधिनियम, 1935 का कानून चलता था। हमारे संविधान ने बनने के बाद भारत सरकार एक्ट का ही स्थान लिया। हमारा संविधान विश्व का वृहदतम संविधान है। यह सबसे लंबा लिखा भी गया है। इसके 395 अनुच्छेद, 22 भाग और 08 अनुसूचियां, इसके विशाल स्वरूप की व्याख्या करतीं है।

इसके निर्माण के बाद, समय की प्रासंगिकता को देखते हुए इसमें अनेकों संशोधन हुए। वर्तमान में हमारे संविधान में 498 आर्टिकल्स, 25 भाग और 12 अनुसूचियां हो गयीं है। चूंकि यह परिवर्तन बदस्तूर जारी है और आगे भी होगा, इसीलिए सदैव मूल संविधान का डाटा ही याद रखना चाहिए।

भारतीय संविधान निर्माता एवम् निर्माण

भारतीय संविधान का जो स्वरुप हमें दिखाई देता है, वो केवल एक व्यक्ति का नहीं, वरन् कई लोगों के अथक प्रयास का नतीजा है। बेशक बाबासाहब डाँ. भीमराव अम्बेडकर को संविधान का निर्माता और जनक कहा जाता है। लेकिन उनके अलावा भी बहुत लोगों ने उल्लेखनीय काम किये हैं। इस संबंध में यह कह सकते है कि, इन लोगों के बिना संविधान कार्य का उल्लेख अधूरा है।

राष्ट्रीय ध्वज का निर्माण पिंगली वैंकेया ने किया था ।

थॉमस हेयर ने आधुनिक निर्वाचन प्रणाली का निर्माण किया था ।

भारतीय संविधान के सजावट का कार्य शांति-निकेतन के कलाकारों ने किया था, जिसका निर्देशन नंद लाल बोस ने किया था।

भारतीय संविधान की संकल्पना श्री एम.एन राव ने 1934 में ही कर दी थी। इसी कारण उन्हें साम्यवादी विचारधारा का पहला अन्वेषक कहा जाता है। इतना ही नहीं, उन्हें कट्टरवादी लोकतंत्र के पायनियर की संज्ञा भी दी जाती है। इनकी संस्तुति को ऑफिशियली सन् 1935 में इंडियन नेशनल कांग्रेस के समक्ष प्रस्तुत किया गया था। तत्पश्चात् श्री सी. राजगोपालाचारी ने सन् 1939 में इसके समर्थन में अपनी आवाज बुलंद की थी। और अन्ततः सन् 1940 में इसे ब्रिटिश सरकार द्वारा मान्यता प्रदान की गयी।

भारतीय संविधान की रचना भी कोई एक दिन की कहानी नहीं है। बल्कि कई वर्षों के अथक प्रयासों का सम्मिलित रूप है। आज की पीढ़ी को सब-कुछ थाली में सजा-परोसा मिलता है न, इसीलिए उसे इसकी कीमत नहीं है। हमारे देश ने करीब साढ़े तीन सौ सालों तक केवल ब्रिटिश हुकुमत की गुलामी झेली है। यह समय कितना असहनीय और पीड़ादायी रहा है, यह हमारे लिए कल्पना के भी परे है।

हम सभी बेहद भाग्यशाली है, जो हमने स्वतंत्र भारत में जन्म लिया। हम कुछ भी कर सकते है, कहीं भी आ-जा सकते है। कुछ भी बोल सकते हैं। ज़रा सोचिए, कितना हृदय-विदारक होता होगा, जब आपको बात-बात पर यातनाएं दी जाती हो। मैं तो सोच भी नहीं सकती, मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

Constitution of India par nibandh – निबंध 3 (600 शब्द)

यूं तो हम सभी प्रायः अनेकों विषयों पर विचार-विमर्श और मंत्रणाएं करते है, किन्तु जब बात देश और देशभक्ति की हो, तब उत्साह ही अलग होता है। यह केवल मेरी ही नहीं, अपितु हम सबकी भावनाओं से जुड़ा है।

देशभक्ति का जज्बा एक अलग ही जज्बा होता है। हमारी नसों में रक्त दुगुनी गति से प्रवाहित होने लगता है। देश के अमर सपुतों के बारे में जानने के बाद, हमारे अंदर भी देश पर मर मिटने का जुनून पैदा होने लगता है।

भारतीय संविधान का इतिहास

भारतीय संविधान को 26 नवंबर सन् 1949 में मंजूरी मिल गई थी, लेकिन इसे 26 जनवरी सन् 1950 में लागू किया गया था। भारतीय संविधान को तैयार करने में 2 साल, 11 महीने और 18 दिन का समय लगा था।

भारतीय संविधान के निर्माण के समय इसमें 395 अनुच्छेद, 08 अनुसूचियां तथा 22 भागों में विभाजित किया गया था, जबकि इस समय भारतीय संविधान 448 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियां और 22 भागों में विभाजित है। संविधान सभा के प्रमुख सदस्य अब्दुल कलाम, पंडित जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. भीमराव अंबेडकर, सरदार वल्लभभाई पटेल थे, जो भारत के सभी राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए थे।

भारतीय संविधान को हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं में हाथ से ही लिखा गया है। भारतीय संविधान को बनाने में लगभग एक करोड़ का खर्च लगा था। भारतीय संविधान में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को 11 दिसंबर सन् 1946 में स्थाई अध्यक्ष चुना गया था। भारतीय संविधान लागू होने के बाद भी इसमें 100 से अधिक संशोधन किए जा चुके हैं। बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष थे।

भारतवर्ष में 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारतीय संविधान में सरकार के अधिकारियों के कर्तव्य और नागरिकों के अधिकारों के बारे में भी बताया गया है। संविधान सभा के कुल सदस्यों की संख्या 389 थी, जिसमें 292 ब्रिटिश प्रांतों के 4 चीफ कमिश्नर एवं 93 देसी रियासतों के थे।

भारत अंग्रेजों से आजाद होने के बाद संविधान सभा के सदस्य ही, संसद के प्रथम सदस्य बने थे और भारत की संविधान सभा का चुनाव भारतीय संविधान को बनाने के लिए ही किया गया था। संविधान के कुछ अनुच्छेदों को 26 नवंबर सन् 1949 को पारित किया गया था जबकि बचे अनुच्छेदों को 26 जनवरी सन् 1950 को लागू किया गया था।

केंद्रीय कार्यपालिका का संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति होता है। भारतीय संविधान का निर्माण करने वाली संविधान सभा का गठन 19 जुलाई 1946 में किया गया था। भारत की संविधान सभा में हैदराबाद रियासत के प्रतिनिधि शामिल नहीं हुए थे।

मौलिक अधिकार

भारतीय संविधान ने भारत के नागरिकों को छः मौलिक अधिकार प्रदान किए है, जिनका वर्णन अनुच्छेद 12 से 35 को मध्य किया गया है –

1) समानता का अधिकार

2) स्वतंत्रता का अधिकार

3) शोषण के विरूध्द अधिकार

4) धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार

5) संस्कृति और शिक्षा से सम्बंधी अधिकार

6) संवैधानिक उपचारों का अधिकार

पहले हमारे संविधान में सात मौलिक अधिकार थे, जिसे ‘44वें संविधान संशोधन, 1978’ के तहत हटाया गया। ‘सम्पत्ति का अधिकार’ सातवाँ मौलिक अधिकार था।

हमारे संविधान में बहुत सारी खूबियां है। कुछ खामियां भी, जिसे समय-समय पर दूर किया जाता रहा है। अपनी कमी को मानना और उसे दूर करना बहुत अच्छा गुण होता है। हमारा संविधान न ही बहुत लचीला है, न ही बहुत सख्त। हमारा देश बेहद उदार देशों की श्रेणी में आता है। माना उदारता बड़ा गुण होता है। लेकिन कुछ देश हमारी उदारता का नाजायज फायदा उठाते हैं। जो कि हमारे देश के हित में नहीं। अधिक उदार होने से लोग आपको कमज़ोर समझने लगते हैं।

संबंधित पोस्ट

मेरी रुचि

मेरी रुचि पर निबंध (My Hobby Essay in Hindi)

धन

धन पर निबंध (Money Essay in Hindi)

समाचार पत्र

समाचार पत्र पर निबंध (Newspaper Essay in Hindi)

मेरा स्कूल

मेरा स्कूल पर निबंध (My School Essay in Hindi)

शिक्षा का महत्व

शिक्षा का महत्व पर निबंध (Importance of Education Essay in Hindi)

बाघ

बाघ पर निबंध (Tiger Essay in Hindi)

Leave a comment.

Your email address will not be published. Required fields are marked *

The Indian Constitution

भारतीय संविधान की उद्देशिका(प्रस्तावना) | Preamble of Indian Constitution In Hindi

' data-src=

प्राय: प्रत्येक अधिनियम के प्रारम्भ में एक उद्देशिका (Preamble) होती है। उदेशिका में उन उद्देश्यों का उल्लेख किया जाता है जिनकी प्राप्ति के लिए उस अधिनियम को पारित किया गया है।

  • विश्व में सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली भारतीय संविधान की उद्देशिका ऑस्ट्रेलियाई संविधान से प्रभावित है।

उद्देशिका संविधान का सार है, जो संविधान के उद्देश्यों और संविधान के दर्शन को प्रदर्शित करती है।

संविधान के आदर्शो और आकांक्षाओ से संविधान निर्माताओ के मस्तिष्क में रहे विचारो को जानने में मदद मिलती है।

उद्देशिका को प्रस्तावना भी कहते है लेकिन संविधान मे “उद्देशिका” शब्द का जिक्र किया गया है।

भारतीय संविधान की उद्देशिका

“हम भारत के लोग , भारत को एक 1 सम्पूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय , विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता , प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और 2 राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26-11-1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”
  • 42वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 की धारा 2 द्वारा (3-1-1977 से) “प्रभुत्व-संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
  • 42वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 की धारा 2 द्वारा (3-1-1977 से) “राष्ट्र की एकता” के स्थान पर प्रतिस्थापित।

संविधान की प्रस्तावना का स्पष्टीकरण

पहले एक बात स्पष्ट कर लेते है की संविधान के लिए उद्देशिका होना जरूरी नही है, लेकिन अगर है तो वह अच्छा है, वह संविधान के मूल उद्देश्य को संक्षेप्त समझा सकती है।

ज़्यादातर लेखित संविधान मे प्रस्तावना लिखी होती है जो अलेखित संविधान मे नही होती है।

  • जैसे भारत के संविधान मे उद्देशिका है जबकि अलेखित ब्रिटेन के संविधान मे उद्देशिका नही है ।

समझ ने के लिए हम उद्देशिका को पाँच भाग मे विभाजित करते है।

  • संविधान का स्त्रोत
  • देश की शासन प्रणाली
  • नागरिकों के अधिकार
  • नागरिकों के कर्तव्य
  • संविधान स्वीकारने की तारीख

1. संविधान का स्त्रोत

संविधान का स्त्रोत से मतलब है, जहा से संविधान को शक्ति मिलेगी, जो संविधान को सर्वोपरि बनाएगा।

उद्देशिका में प्रयुक्त “हम भारत के लोग….. ..इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं” पदावली से यह स्पष्ट है कि भारतीय संविधान का स्रोत भारत की जनता है और भारतीय जनता ने अपनी सम्प्रभु इच्छा को इस संविधान के माध्यम से व्यक्त किया है।

इसका तात्पर्य यह है कि जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों की सभा द्वारा संविधान का निर्माण किया गया है।

कुछ लोग इस बात से सहमत नहीं हैं, क्योंकि संविधान निर्मात्री सभा के प्रतिनिधियों का चुनाव जनता के वयस्क मताधिकार द्वारा नहीं किया गया था।

1947 की संविधान सभा में सभी प्रतिनिधियों को जनता का समर्थन नहीं प्राप्त था।

ऐसा ही एक दावा केहर सिंह बनाव भारत संघ केस में किया गया। जिसको सुप्रीम कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया।

संविधान-निर्मात्री सभा की स्थापना ब्रिटिश-संसद के एक अधिनियम द्वारा की गयी थी इसलिए यह एक सम्प्रभु संस्था नहीं कही जा सकती। सैद्धांतिक द्रष्टि यह बात सही भी है।

लेकिन व्यवहार में भारत की जनता ने दिखा दिया है कि सारी शक्ति देशवासी के हाथो में है। 1950 के बाद बने कानून और किये गए संवैधानिक सुधार यह दिखते है कि जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि ही देश का शासन चलाते हैं।

2. देश की शासन प्रणाली

उद्देशिका के अनुसार भारत कि शासन प्रणाली इस पाँच सिद्धांत को जरुर सुनिश्चित करेगी

  • प्रभुत्वसंपन्न राष्ट्र
  • समाजवादी विचारधारा
  • पंथ निरपेक्षता
  • लोकतंत्रात्मक राष्ट्र
  • गणराज्य देश

2.1 प्रभुत्वसंपन्न राष्ट्र (Sovereign Country)

प्रभुत्वसंपन्न राष्ट्र का यह अर्थ है कि भारत आंतरिक या बाह्य द्रष्टि से किसी भी विदेशी सत्ता के अधीन नही है।

इसका सरल अर्थ है की भारत अपने निर्णय खुद से और पूरी स्वतंत्रता से लेगा । यह निर्णय देश कि जनता की तरफ से चुने हुए प्रतिनिधि लेते है।

भारत अपनी विदेशी नीति मे जैसे चाहे वैसे गठन कर सकता है। वह किसी देश से मित्रता और संधि अपनी मरजी कर सकता है।

पाकिस्तान के साथ कैसा व्यवहार रखना है यह भारत खुद से निर्णय करेगा नही कि अन्य देश के दबाव मे।

स्वतन्त्रता के पश्चात् भी भारत राष्ट्रमण्डल (Commonwealth) का सदस्य है। किन्तु यह सदस्यता भारत की सम्प्रभुता पर अंशमात्र भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालती है।

कई बार सवाल उठते है की भारत WTO, UNSC जैसी वैश्विक संस्था और USA जैसे देशो की बातें मानता है।

वास्तव में भारत कई वैश्विक संस्था का सदस्य है, जहा पर उसे संस्था के नियम को मानना पड़ता है, लेकिन यह बदले मे भारत को कई प्रकार के फायदे देता है इसीलिए प्रभुत्वसंपन्नता का उल्लंघन नही माना जाएगा।

भारत ने एसी संस्था में सदस्यता को अपनी इच्छा से स्वीकार किया है और वह जब चाहे इसकी सदस्यता को छोड़ सकता है।

देखिये भारत अपनी विदेशी कूटनीति अपने फायदे और हितो को ध्यान में रखकर बनाता जिसमे कभी कभी अन्य देश के हितो का भी ख्याल रखना पड़ता है, इसमें भारत गैर सार्वभोमिक नही हो जाता।

वैसे भी वैश्विकीकरण के बाद सभी देश आपसमे जुड़े हुए है, जिस वजह कोई भी देश सम्पूर्ण प्रभुत्वसंपन्न नही है।

2.2 समाजवादी विचारधारा (Socialist Ideology)

विश्व में मुख्यतः दो विचारधारा पर देश का प्रशासन चलता है। एक साम्यवादी (Communist) और दूसरा पूंजीवादी (Capitalist) ।

साम्यवादी में देश के सारे संशाधन पर सरकार का काबू होता है, जबकि मुड़ीवादी मे संशाधन का नियमन बाज़ार पर छोड़ दिया जाता है जिसमे सरकार बहुत कम हस्तक्षेप करती है।

आज़ादी के बाद भारत की परिस्थिति को देख कर इन दोनों के बीच की समाजवादी विचारधारा (Socialist Ideology) को अपनाना ठीक समझा।

हालाकी, संविधान में ‘समाजवाद’ शब्द लिखा नही गया था फिर भी संविधान के प्रावधान जैसे भाग 4 के नीति निर्देश सिद्धांत इसी विचारधारा को दर्शाते थे।

जिसको बाद में जरूरत महसूस होने पर 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 से उद्देशिका मे लिख दिया गया।

इस शब्द की कोई निश्चित परिभाषा देना कठिन है।

  • किन्तु सामान्य अर्थ में समाज में उपस्थित सभी संशाधनो को समाज के सभी लोगों में समानरूप से न्यायपूर्ण वितरण करना कह सकते है।

भारतीय संविधान ने इस दिशा में एक बीच का मार्ग अपनाया है, जिसे मिश्रित अर्थव्यवस्था भी कहते हैं।

लेकिन भारत के परिपेक्ष मे समझे तो,

समाजवादी व्यवस्था में भारत की सरकार कुछ संशाधन पर अपना नियंत्रण रखती है जिसका इस्तेमाल देश की जनता के लिए कल्याणकारी कार्यो एवं उनके विकास के लिए किया जाता है।

ओर बाकी संशाधन को बाज़ार (Market) के ऊपर छोड़ दिया जाता।

  • संक्षेप्त में कहे तो देश की अर्थव्यवस्था सरकार तथा ख़ानगी दोनों क्षेत्र से चलती है।

उदाहरण: ONGC सरकारी पेट्रोलियम रिफ़ाइनेरी है और Reliance ख़ानगी है।

  • परमाण्विक कार्यो को सिर्फ सरकारी संस्था करती है, जबकि रेल्वे मे सरकार और खानगी दोनों काम करते है, वैसेही रियल इस्टेट पूरा ख़ानगी क्षेत्र है।

सरकार का संशाधन पर नियन्त्रण की मात्रा कितनी अधिक या कितनी कम है इस आधार पर समाजवाद के वास्तविक स्वरूप का अवधारण किया जाता है।

1991 के LPG सुधारो में सरकार कई क्षेत्रो में अपना नियंत्रण कम करके थोड़ा सा मुड़ीवादी की ओर जुकी है।

2.3 पंथ निरपेक्षता (Secularism)

भारत का कोई राष्ट्रीय धर्म नही होगा।

संविधान के अंदर पंथ निरपेक्ष या धर्म निरपेक्ष शब्द का उल्लेख नही है, लेकिन संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 25 से अनुच्छेद 28 तक धार्मिक स्वतंत्रता के रूप में मूल अधिकारों का उल्लेखित किया गया है।

पाकिस्तान, ईरान जेसे देशो का राष्ट्रिय धर्म इस्लाम है जबकि भारत में सभी धर्मो को समान महत्व प्रदान किया गया है।

प्रश्न यह है की राष्ट्रिय धर्म होने या न होने से क्या फर्क पड़ता है ?

बिलकुल फर्क पड़ता है,

अगर आपको पाकिस्तान सरकार के किसी भी उच्च पद जेसे – प्रधानमंत्री, कोर्ट के जज, आर्मी अधिकारी आदि पर बेठना हो तो आपको इस्लाम धर्म का होना अनिवार्य है।

और अगर आप इस्लाम को नही मानते तो फिर आपको इस्लाम स्वीकार करके बाद ही पद मिल सकता है।

  • जबकि भारत में किसी भी धर्म का व्यक्ति ऐसे पद ग्रहण कर सकता है।

राष्ट्रीय धर्म यह भी दर्शाता है की उस देश की नीतियां अपने राष्ट्रिय धर्म की ओर ज्यादा जुकी हुई होगी।

ध्यान देने की बात यह है की भारत में सकारात्मक धर्म निरपेक्षता है, जिसमे सभी धर्मो को समान महत्व दिया जाता है।

इसके विपरीत यूरोप के देशो में नकारात्मक धर्म निरपेक्षता है, इसमें किसी भी धर्म को महत्व नही दिया जाता।

2.4 लोकतंत्रात्मक राष्ट्र (Democracy)

भारत लोकतंत्रात्मक राष्ट्र होगा, जिसमे देश को चलाने के सभी निर्णय देश की जनता लेगी।

सवा सो करोड़ वस्ती होने से सभी को निर्णय में समावेश करना वास्तविक नही है इसीलिए उनके द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि निर्णय लेते है।

अब्राहम लिंकन के अनुसार,

By the people, For the people, Of the people (लोगों का, लोगों के लिए, लोगों द्वारा चलता शासन) अब्राहम लिंकन

शासन ही सही मायने में लोकतंत्र की निशानी है।

2.5 गणराज्य देश (Republic)

गणराज्य में जनता सर्वोपरि शासक होती है, जहा किसी वंशानुगत (Hereditary) परिवार या वंश का शासन नहीं होता है।

गणराज्य में जनता देश के प्रमुख को निश्चित समय के लिए चुनती है।

इस परिभाषा के अनुसार भारत गणराज्य देश है, क्योंकि हम अपने राष्ट्रपति को परोक्ष रूप से पांच साल के लिए चुनते है।

जबकि ब्रिटेन में रानी के परिवार का शासन होता है, जो वंशानुगत पद धारण करते है और जिसको जनता ने नही चुना होता है, इसीलिए वह गणराज्य नही है।

  • संक्षेप्त में :- राजप्रमुख निर्वाचित होगा न कि वंशानुगत

3. नागरिकों के अधिकार

3.1 न्याय का अधिकार.

संविधान के अंदर देश के नागरिको और रहवासी दोनों को कई अधिकार दिए है लेकिन प्रस्तावना में सिर्फ तीन का उल्लेख है।

3.1.1 सामाजिक न्याय (Social Justice)

सभी जाति, धर्म और वर्ग के देशवासी को समान अधिकार दिए जायेंगे।

अनुच्छेद 15 और 16 में उल्लेख है की भारत किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।

  • जिसका सरल अर्थ है समाज में सबको समान मान-सम्मान मिलेगा, कोई भी उच्च-निच का भेद नही होगा।

संविधान के भाग 3 में लिखित अनुच्छेद 14 से 18 , मूल अधिकारों के रूप में सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करते है।

इस शब्द से यह बात सुनिश्चित होती है की संविधान भारत की सरकार को पिछड़े वर्ग (SC, ST, OBC) और महिला के उत्थान के लिए प्रेरित करेगा।

3.1.2 आर्थिक न्याय (Economic Justice)

भारत सभी वर्गों के लोगों के लिए न्यूनतम आर्थिक क्षमता (जैसे न्यूनतम आय, संपति) सुनिश्चित करेगा जिससे व्यक्ति अपनी मूल आवश्यकताये (जैसे अन्न, कपडा, मकान) पूर्ण कर सके।

सुर्ख़ियों में चल रही सार्वभौमिक बुनियादी आय (Universal Basic Income) इसी न्याय की पूर्ति के लिए है।

3.1.3 राजनीतिक न्याय (Political Justice)

राजनीतिक न्याय से मतलब है की, सभी नागरिको को समान राजनीतिक अधिकार मिलेंगे, सभी को राजनीतिक दफ्तरों में जाने की छुट होगी और सभी को राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिलेगा जिससे सरकार में वह अपनी बात रख सकेंगे।

पंचायती राज दाखिल करने से ग्रामीण एवं जनजाति समुदाय को राजनीतिक न्याय सुनिश्चित किया गया है।

  • उपर के तीनो न्याय के लिए संविधान ने आरक्षण का भी प्रावधान किया गया है।

3.2 स्वतंत्रता का अधिकार

उद्देशिका में सिर्फ पांच स्वतंत्रता का उल्लेख है।

  • विचार :- आपको कुछ भी विचार ने की और मानसिक क्षमता बढ़ाने की स्वतंत्रता है
  • अभिव्यक्ति :- अपनी भावना को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता ( अनुच्छेद 19 )
  • विश्वास :- किसी धर्म, समूह या व्यक्ति पर विश्वास करने की स्वतंत्रता
  • धर्म की स्वतंत्रता ( अनुच्छेद 25 )
  • उपासना :- अपने धर्म या विश्वास को अपने तरीके से पालने की स्वतंत्रता

3.3 समता का अधिकार

  • प्रतिष्ठा: – सभी को समान मान-सम्मान मिलेगा, किसी के साथ किसी भी प्रकार का भेद नही किया जायेगा। ( अनुच्छेद 14 और 15 )
  • अवसर: – वृद्धि या नौकरी के लिए सबको सामान अवसर दिए जायेंगे। ( अनुच्छेद 16 )

4. नागरिकों के कर्तव्य

4.1 व्यक्ति की गरिमा.

उद्देशिका के अनुसार प्रत्येक नागरिक यह कर्तव्य होगा की वह देश के तमाम व्यक्ति की गरिमा का ख्याल रखे। ऐसा कोई भी काम न करे जिससे अन्य व्यक्ति के मान-सम्मान या भावना को छोंट पहुचे।

प्रत्येक देशवासी को आपसमें ऐसी बंधुता (मित्रता) रखनी होगी जिससे राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित हो।

जातिय, धार्मिक, आर्थिक ऐसे सभी भेदभावो को भुलाकर देशवासी का कर्तव्य होगा की देश में फैलते साम्प्रदायिकता, विस्तारवाद, कट्टरता जैसे दुषनो से देश को टूट ने से बचाने में अपना योगदान दे।

5. संविधान स्वीकारने की तारीख

26-11-1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी) इस तारीख को संविधान सभा ने संविधान को पूर्ण बहुमत से स्वीकार कर लिया था। लेकिन पूरे देश में लागु 26-01-1950 को किया गया।

वैसे तारीख तो तारीख होती है लेकिन संविधान स्वीकार ने की एस तारीख से भारतीय कानून व्यवस्था में बहु महत्व है।

इस तारीख से पहले पारित किये गये सभी कानूनों को संविधान के प्रावधानों पर खरा उतरना पड़ा, जो संविधान के विरुद्ध थे उन्हें ख़ारिज कर दिया गया।

  • जिससे आगे चलकर ग्रहण का सिद्धांत (Doctrine of Eclipse) सामने आया।

ओर एक बात संविधान के पहले के कानूनों पर सर्वोच्च न्यायलय किसी भी प्रकार की कार्यवाही या सुनवाही नही करती। लेकिन जिस ब्रिटिश कानूनों को संसद ने संविधानिक बताया है उन पर सुनवाही करती है।

याद रखें:- प्रस्तावना में लिखे यह स्वतंत्रता, समता और बंधुता शब्दों को फ्रेन्च क्रांति (1789-99) से प्रेरित हो कर समावेश किया है।

' data-src=

नमस्ते! मैं मेहुल जोशी हूँ। मैंने इस ब्लॉग को संवैधानिक प्रावधानों और भारतीय कानूनों को बहुत आसान बनाने की दृष्टि से बनाया है ताकि आम लोग भी कानून आसानी से समझ सकें।

Similar Posts

संविधान क्या है ? संविधान की परिभाषा, प्रकार, और कार्य | What Is Constitution In Hindi

संविधान क्या है ? संविधान की परिभाषा, प्रकार, और कार्य | What Is Constitution In Hindi

पृथक्करणीयता का सिद्धान्त | doctrine of severability in hindi, भारतीय संविधान के संशोधन की शक्ति, प्रकार और प्रक्रिया | amendment of constitution in hindi, भारतीय संविधान का इतिहास एवं विकास | development of indian constitution in hindi.

Great article with excellent ideas. I appreciate your post. Thank you so much and let’s keep on sharing your stuff.

Very very nice formats use in this topic. I am very happy It’s very good and best forever. Thank you

Best blog and thought and more info add

Sir thank you so much very very nice format use in this topic

I BELIEVE IN MY CONSTITUTION

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment.

  • Hindi Law Blog

essay on preamble of indian constitution in hindi

  • constitution of India 1950
  • Preamble of Indian Constitution

भारतीय संविधान की प्रस्तावना 

Constitution of India

यह लेख लॉयड लॉ कॉलेज, ग्रेटर नोएडा के कानून के छात्र  Gaurav Raj Grover और Diksha Paliwal द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारत के संविधान के परिचयात्मक भाग यानी प्रस्तावना (प्रिएंबल) के बारे में बात करता है। इससे पहले, यह संविधान शब्द के अर्थ का संक्षिप्त परिचय देता है और उसके बाद ‘प्रस्तावना’ शब्द की विस्तृत चर्चा करता है। यह प्रस्तावना के साथ-साथ संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में भी बात करता है। बाद के भाग में, यह कुछ महत्वपूर्ण न्यायिक घोषणाओं के साथ-साथ प्रस्तावना के महत्वपूर्ण तत्वों पर चर्चा करता है जिससे प्रस्तावना के उद्देश्य और उपयोग की बेहतर व्याख्या में मदद मिलती है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

Table of Contents

26 फरवरी 1948 और 26 जनवरी 1950 भारत के कानूनी इतिहास में दो उल्लेखनीय घटनाओं की शुरुआत करते हैं। ये तारीखें क्रमशः संविधान के सार्वजनिक विमोचन (पब्लिक रिलीज) और उसके प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) का प्रतीक हैं। इसके परिणामस्वरूप विश्व में एक नए गणतंत्र का जन्म हुआ था। लेख में आगे बढ़ने से पहले, यह सवाल उठता है कि ‘संविधान’ शब्द का क्या अर्थ है? आम बोलचाल की भाषा में इसका तात्पर्य विशेष कानूनी पवित्रता वाले दस्तावेज़ से है। यह किसी राज्य के सभी शासी निकायों के कानूनी ढांचे और प्रमुख कार्यों को निर्धारित करता है। यह उन सिद्धांतों को भी निर्धारित करता है जो इन अंगों के संचालन को नियंत्रित करते हैं।

essay on preamble of indian constitution in hindi

देश का मौलिक कानून, यानी संविधान, राज्य की संस्था और उसके अंगों से संबंधित होता है। एक कानूनी ढाँचा स्थापित करके, संविधान राज्य और उसकी जनसंख्या के बीच संबंधों को नियंत्रित करता है। साथ ही, यह राज्य और उसके उपकरणों को दी गई शक्तियों को बाधित और प्रतिबंधित करता है। 

संविधान का परिचयात्मक भाग, जो संविधान में सन्निहित मूल संवैधानिक मूल्यों को दर्शाता है, ‘ प्रस्तावना ‘ कहलाता है। अधिनियम या क़ानून के प्रावधानों पर विचार करने से पहले कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों और सामग्री को समझाने के लिए इसका मसौदा तैयार किया गया है। यह क़ानून के लक्ष्य और उद्देश्यों को निर्धारित करता है, जिसे वह प्राप्त करना चाहता है। 

अपने प्रारंभिक भाग में लेख भारतीय संविधान, इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और इसकी मुख्य विशेषताओं के बारे में एक संक्षिप्त परिचय देता है। इसके बाद यह सामान्य परिप्रेक्ष्य से ‘प्रस्तावना’ शब्द का अर्थ समझाता है और फिर भारत के संविधान की प्रस्तावना, इसके इतिहास, इसके उद्देश्यों, प्रमुख घटकों और प्रस्तावना में किए गए महत्वपूर्ण संशोधनों पर चर्चा करता है। इसके अलावा, यह संविधान की प्रस्तावना से संबंधित महत्वपूर्ण न्यायिक विकास से संबंधित है। 

भारतीय संविधान की प्रस्तावना पर विस्तार से चर्चा करने से पहले आइए संविधान का संक्षिप्त अवलोकन करें। 

भारत का संविधान, 1950

भारतीय संविधान एक क़ानून है जिसमें ऐसे प्रावधान हैं जो राज्य और उसके प्राधिकरणों की शक्तियों, नागरिक अधिकारों और राज्य और उसकी आबादी के बीच संबंध स्थापित करते हैं। इस उल्लेखनीय कानूनी दस्तावेज़ की प्रवर्तन तिथि 26 जनवरी 1950 है। भारत का संविधान निस्संदेह लोगों के प्रतिष्ठित प्रतिनिधियों के शोध और विचार-विमर्श का एक परिणाम है। यह निश्चित रूप से किसी राजनीतिक क्रांति का परिणाम नहीं है। यह इन प्रतिष्ठित प्रतिनिधियों की कड़ी मेहनत का परिणाम है जो देश के प्रशासन में सुधार करना चाहते थे और सामान्य तौर पर, देश की मौजूदा व्यवस्था में सुधार करना चाहते थे। किसी भी संविधान को बेहतर ढंग से समझने के लिए, उस ऐतिहासिक प्रक्रिया और घटनाओं जिसके कारण इसे लागू किया गया था, पर नज़र डालना बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि इसके प्रावधानों और इसके पीछे के उद्देश्य को बेहतर ढंग से जानने और समझने में मदद करती है। आइए उन महत्वपूर्ण घटनाओं का संक्षिप्त अवलोकन करें जिनके कारण दुनिया का सबसे लंबा लिखित संविधान लागू हुआ था। 

भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 

ब्रिटिश शासन के तहत, भारत को दो भागों में विभाजित किया गया था, अर्थात् ब्रिटिश प्रांत और रियासतें (प्रिंसली स्टेट)। ब्रिटिश शासन काल में, भारत संघ लगभग 52 प्रतिशत भारतीय क्षेत्र के अलावा 550 से अधिक रियासतों का एक संयोजन था, जो ब्रिटिशों, अर्थात् ब्रिटिश प्रांतों के सीधे शासन के अधीन था। संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझने के लिए औपनिवेशिक काल की घटनाओं पर पकड़ पर्याप्त है, क्योंकि मुख्य राजनीतिक संस्थाओं का उद्भव और विकास उसी काल में हुआ था। हमारे संविधान ने अंग्रेजों द्वारा बनाए गए अधिनियमों और नियमों के कई प्रावधानों को महत्वपूर्ण रूप से अपनाया है और संविधान की प्रस्तावना संविधान सभा द्वारा लिखे गए सिद्धांतों का परिणाम है। 

संविधान का अधिनियमन विभिन्न घटनाओं का परिणाम रहा है जिन्हें आम तौर पर विभिन्न चरणों में विभाजित किया गया है। इन घटनाओं को निम्नलिखित अवधि के अंतर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है जैसा कि नीचे उल्लिखित उपशीर्षकों में चर्चा की गई है।

1600-1765: अंग्रेजों का आगमन

प्रारंभ में, अंग्रेज वर्ष 1600 में व्यापार करने के लिए भारत आए थे। अंग्रेजों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी नामक कंपनी के तहत व्यापार करना शुरू किया था। कंपनी ने अपना संविधान, काम करने का अधिकार, विशेषाधिकार और अन्य शक्तियाँ दिसंबर 1600 में महारानी एलिजाबेथ द्वारा हस्ताक्षरित एक चार्टर से प्राप्त कीं थी। इस चार्टर के माध्यम से, कंपनी को भारत में व्यापार करने के लिए एकाधिकार प्राप्त हुआ था। प्रारंभ में यह अवधि 15 वर्ष थी जिसे बाद में इसे बढ़ा दिया गया। कंपनी का प्रबंधन एक गवर्नर और 24 अन्य सदस्यों के हाथों में था जिनके पास भारत में व्यापार अभियान चलाने और व्यापार को व्यवस्थित करने का अधिकार था। ऐसा प्राधिकरण और शक्ति चार्टर के माध्यम से निहित थी। अंततः जब अंग्रेजों ने व्यापार से इतना पैसा कमा लिया तो उन्होंने भारतीय शासकों की सहमति से भारत के कई स्थानों पर अपने व्यापारिक केंद्र स्थापित करना शुरू कर दिया। अंग्रेज़ भारतीय शासकों से अपने स्वयं के कानूनों को बनाए रखने की अनुमति लेने में भी कामयाब रहे। इन रियायतों ने धीरे-धीरे ब्रिटिशों और क्राउन के लिए पूरे ब्रिटिश भारत में अविभाजित संप्रभुता (सोव्रेंटी) का प्रयोग करने का मार्ग प्रशस्त किया। 

वर्ष 1601 में, क्राउन द्वारा एक नया चार्टर अधिनियमित किया गया था, जिसने ईस्ट इंडिया कंपनी को विधायी शक्ति प्रदान की, जिससे उन्हें कंपनी के सुशासन के लिए नियम, कानून और अध्यादेश (ऑर्डिनेंस) बनाने का अधिकार मिल गया था। कंपनी को दी गई यह विधायी शक्ति किसी विदेशी क्षेत्र पर कानून बनाने या शासन करने की शक्ति नहीं थी, बल्कि यह केवल कंपनी की व्यापारिक चिंताओं तक ही सीमित थी। हालाँकि, कंपनी को विभिन्न शक्तियाँ प्रदान करने वाले ये चार्टर बहुत महत्वपूर्ण थे क्योंकि ये वे रत्न थे जिनसे अंततः एंग्लो-इंडियन कोड विकसित हुए थे। बाद में वर्ष 1609 और 1661 में क्राउन द्वारा समान शक्तियां प्रदान की गईं, जिससे पहले के चार्टर की पुष्टि हुई। 

वर्ष 1726 में एक नए चार्टर को अधिनियमित किया गया था जिसका अत्यधिक विधायी महत्व था। पहले, विधायी शक्तियाँ इंग्लैंड में निदेशक न्यायालय में निहित थीं। हालाँकि, ये लोग भारत की तत्कालीन परिस्थितियों से भली-भाँति परिचित नहीं थे। इसलिए, क्राउन द्वारा निर्णय लिया गया कि कानून बनाने की शक्ति उन लोगों को सौंपी जाए जो भारतीय परिस्थितियों से परिचित हों। तदनुसार, चार्टर ने कानूनों के उल्लंघन के मामले में दंड प्रावधानों के साथ-साथ उप-कानून, नियम और अध्यादेश तैयार करने के लिए गवर्नर और एक परिषद को शक्ति दी थी, जिसमें तीन अन्य सदस्य भी शामिल थे। चार्टर ने कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास में मेयर कोर्ट की स्थापना की, जिससे प्रांतों में अंग्रेजी कानून लागू हुए थे। 

18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध (सेकंड हाफ) में, सम्राट औरंगजेब की मृत्यु के कारण भारत में अस्थिरता पैदा हो गई थी, जिसके कारण भारत प्रतिद्वंद्वी प्रतिस्पर्धी (राइवल कॉन्टेस्टिंग) रियासतों का युद्धक्षेत्र बन गया था। अंग्रेजों ने इस अराजक (क्योटिक) स्थिति का फायदा उठाया और खुद को भारतीय उपमहाद्वीप का स्वामी स्थापित कर लिया। अंग्रेजों के हाथ में सत्ता का यह क्रमिक स्थानांतरण (ट्रांसफर) प्लासी की लड़ाई (1857) के कारण हुआ, जो ईस्ट इंडिया कंपनी और सिराजुदुल्ला (बंगाल के तत्कालीन नवाब) के बीच लड़ा गया था। इस लड़ाई में अंग्रेजों की जीत हुई थी और इस तरह भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव पड़ी थी।

1765-1858: ब्रिटिश शासन की शुरुआत

1765 के आसपास, सम्राट शाह आलम ने ईस्ट इंडिया कंपनी को राजस्व (रिवेन्यू) इकट्ठा करने की जिम्मेदारी दी थी। इससे अंततः कुछ हद तक नागरिक न्याय प्रणाली का प्रशासन उनके हाथ में आ गया था। इस वर्ष को अक्सर भारत पर ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा क्षेत्रीय संप्रभुता के युग की शुरुआत का वर्ष माना जाता है। हालाँकि, कंपनी ने राजस्व इकट्ठा करने के इस कार्य को तुरंत अपने हाथ में लेना शुरू नहीं किया, इसका कारण राजस्व इकट्ठा करने की प्रणाली से अपरिचित होना था। अंग्रेजों ने निर्णय लिया कि कुछ समय के लिए भारतीयों को यह कार्य करने दिया जाए, लेकिन उन्होंने राजस्व इकट्ठा करने की प्रणाली के कामकाज की निगरानी के लिए अंग्रेजी अधिकारियों को नियुक्त किया था। यह व्यवस्था भारतीयों के लिए बहुत हानिकारक साबित हुई क्योंकि अंग्रेजों ने भारतीयों का शोषण करना शुरू कर दिया। 

वर्ष 1772 में, कंपनी के कामकाज की जाँच के लिए क्राउन द्वारा एक समिति बनाई गई और जांच के बाद परिणाम प्रकाशित किए गए। क्राउन को कंपनी की अपर्याप्तताओं के बारे में पता चला, और इसलिए संसद द्वारा एक नया विनियमन अधिनियम बनाया गया था। 1773 का यह रेगुलेटिंग एक्ट संविधान के इतिहास में बहुत महत्व रखता है। यह पहली बार था कि कंपनी के मामलों को विनियमित करने का अधिकार संसद को प्रदान किया गया था। इस अधिनियम में मुख्य रूप से निम्नलिखित बातें अधिनियमित की गईं थी- कलकत्ता सरकार की मान्यता, कंपनी के संविधान में परिवर्तन, मद्रास और बॉम्बे के प्रांत को बंगाल के गवर्नर जनरल के नियंत्रण में लाया गया था, और कलकत्ता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई थी। 

बाद में 1773 के रेग्युलेटिंग एक्ट की अस्पष्टता एवं अनियमितताओं को दूर करने के लिए एक नया अधिनियम अर्थात् 1781 का रेगुलेटिंग एक्ट पारित किया गया था। यह अधिनियम कुछ नए प्रावधानों के साथ आया, जैसे- सरकारी कर्मचारियों को ड्यूटी पर रहने के दौरान किए गए कार्यों के लिए कुछ दंड से छूट, अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) से संबंधित प्रश्न, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कौन से कानून लागू किए जाने हैं, इसके बारे में स्पष्टीकरण, और विभिन्न क्षमताओं के तहत गवर्नरों को कानून बनाने का अधिकार दिया गया था। 

वर्ष 1784 में, पिट्स इंडिया एक्ट अधिनियमित किया गया जिसने कंपनी के राजनीतिक मामलों को वाणिज्यिक (कमर्शियल) मामलों से अलग कर दिया। निदेशक मंडल को कंपनी के वाणिज्यिक मामलों के प्रबंधन के लिए अधिकृत किया गया था जबकि अंग्रेजों के राजनीतिक मामलों के प्रबंधन के लिए छह सदस्यों वाली एक समिति का गठन किया गया था। बाद में, 1813 के चार्टर एक्ट ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से व्यापार का एकाधिकार छीन लिया था। चार्टर ने विभिन्न परिषदों को दी गई शक्ति पर बेहतर नियंत्रण का भी दावा किया। 

1833 के चार्टर एक्ट ने एक तरह से अंग्रेजों की शक्ति को केंद्रीकृत कर दिया था। इसने भारत का एक गवर्नर जनरल नियुक्त किया, जिसे पहले बंगाल का गवर्नर जनरल कहा जाता था। उनके नेतृत्व में एक परिषद भी गठित की गई जिसे ब्रिटिशों के साथ-साथ ब्रिटिश भारत में रहने वाले भारतीयों दोनों के लिए कानून और नियम बनाने का अधिकार दिया गया। अधिनियम ने एक कानून सदस्य की भी नियुक्ति की, जिसका कार्यकारी मामलों में कोई दखल नहीं था और उसे पूरी तरह से कानून के मामलों से निपटने के लिए निर्देशित किया गया था। पिछले कानूनों को विनियम (रेगुलेशन) कहा जाता था, हालाँकि, 1833 के अधिनियम संसद के अधिनियम थे। 

इसके बाद, 1853 में एक नया चार्टर अधिनियमित किया गया जिसने एक तरह से शक्तियों के पृथक्करण (सेपरेशन) की अवधारणा को स्पष्ट रूप से पेश नहीं किया। 1853 के इस चार्टर ने कार्यकारी (एग्जिक्यूटिव) अंग को विधायी अंग से अलग कर दिया। साथ ही, स्थानीय प्रतिनिधियों की अवधारणा को पहली बार भारतीय विधानमंडल में पेश किया गया था। इन अधिनियमों ने निश्चित रूप से भारतीय संप्रभुता को लगभग पूरी तरह से क्राउन को हस्तांतरित करने का मार्ग प्रशस्त किया। 

1858-1919: ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का अंत

पिट्स इंडिया एक्ट 1784 के माध्यम से दोहरी सरकार की स्थापना बुरी तरह विफल रही। कंपनी का देश के मामलों पर उचित नियंत्रण भी नहीं था और कई क्षेत्रों में व्यापार लाभ भी कम हो रहा था। इसके साथ ही भारत की जनता अंग्रेजों के अत्याचारों से बहुत क्रोधित थी। अंग्रेजों के खिलाफ पहला युद्ध यानी 1857 का सिपाही विद्रोह अंग्रेजों के सामने एक झटके की तरह आया था। कंपनी के फैसले के खिलाफ इन सभी प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण संसद द्वारा एक नया अधिनियम लागू किया गया, जिसे भारत सरकार अधिनियम 1858 के रूप में जाना जाता है। इस अधिनियम ने भारत के शासन को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से क्राउन में स्थानांतरित कर दिया। भारत अब महामहिम (हर मैजेस्टी) द्वारा शासित होता था। क्राउन ने अपनी ओर से भारत सचिव को अधिकार दिया, जिसकी सहायता एक परिषद् द्वारा की जाती थी। भारत के मामलों का प्रबंधन करने के लिए इसमें 15 सदस्य शामिल हैं। अधिनियम में राज्य के सचिव (सेक्रेटरी) और परिषद को एक निगमित (कॉर्पोरेट) निकाय के रूप में भी गठित किया गया जो भारत और इंग्लैंड में अपने नाम से मुकदमा चलाने और अपने नाम पर मुकदमा होने में सक्षम था। इस अधिनियम ने आधिकारिक तौर पर “क्राउन द्वारा प्रत्यक्ष शासन” की स्थापना की थी।

बाद के काल में 1861 का भारतीय परिषद अधिनियम लागू किया गया था, जिसने प्रतिनिधि संस्थाओं का आधार या शुरुआत की थी। भारतीय पहली बार सरकार के मामलों, विशेषकर कानून के काम से जुड़े थे। यह अधिनियम संवैधानिक इतिहास में बहुत महत्व रखता है। पहला इसलिए क्योंकि इसने भारतीयों को कानून बनाने से जोड़ा और दूसरा इसलिए क्योंकि इसने बंबई और मद्रास की सरकार को कानून बनाने की शक्ति प्रदान की। एक तरह से इसने प्रांतों को आंतरिक स्वायत्तता(ऑटोनोमी)  प्रदान की थी। 

वर्ष 1892 में एक नया भारतीय परिषद अधिनियम पारित किया गया था। इस अधिनियम ने तीन महत्वपूर्ण बातें प्रस्तुत कीं, अर्थात्, चुनाव प्रणाली की शुरूआत, केंद्रीय और प्रांतीय परिषदों में सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गई और परिषद के कार्यों को बढ़ाया गया था। इस अधिनियम ने प्रतिनिधि सरकार की नींव रखी थी। हालाँकि, इसमें अभी भी चुनाव प्रणाली, कुछ लोगों के लिए प्रतिनिधित्व की कमी आदि जैसे विभिन्न प्रावधानों से संबंधित कुछ मतभेद थे और इसलिए 1909 का भारतीय परिषद अधिनियम लागू किया गया था जो मॉर्ले-मिंटो सुधारों से भी जुड़ा था। 

1909 के अधिनियम ने केंद्रीय और प्रांतीय दोनों के लिए विधान परिषदों के आकार में वृद्धि की शुरुआत की। परिषद को वित्तीय विवरण पर चर्चा करने और एक प्रस्ताव पेश करने का अधिकार भी प्रदान किया गया था, हालाँकि, उन्हें मतदान की शक्ति प्रदान नहीं की गई थी।

1919-1947: स्वशासन का परिचय 

यह चरण संवैधानिक इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण अधिनियम के रूप में एक उल्लेखनीय स्थान रखता है, यानी, भारत सरकार अधिनियम, 1919 जो मॉन्टेग चेम्सफोर्ड रिपोर्ट के पारित होने का परिणाम था। इस अधिनियम ने संघीय ढांचे के विचार को प्रस्तुत करने के साथ-साथ जिम्मेदार सरकार की अवधारणा को स्थापित किया। पहली बार लोक सेवा आयोग की स्थापना की गई थी। इसने प्रांतों में द्वैध शासन की अवधारणा भी पेश की थी। 

1919 के अधिनियम में विभिन्न कमियाँ थीं। इसके साथ ही, अंग्रेजों को बेहतर सुधार तैयार करने की बढ़ती मांग का सामना करना पड़ा और इसके परिणामस्वरूप साइमन कमीशन की नियुक्ति हुई थी। आयोग द्वारा एक रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी, जिसके बाद गोलमेज सम्मेलन (राउंड टेबल कांफ्रेंस) में रिपोर्ट पर चर्चा की गई। इस सम्मेलन में ब्रिटिश सरकार के सदस्यों के साथ-साथ राज्य शासक भी शामिल थे। रिपोर्ट की सिफ़ारिशों और सम्मेलन में हुई चर्चा के बाद भारत सरकार अधिनियम, 1935 (इसके बाद 1935 का अधिनियम कहा जायेगा) पारित किया गया था। 

भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने केंद्रीय स्तर पर द्वैध शासन प्रणाली की शुरुआत की जिसे शुरुआत में प्रांतीय स्तर पर स्थापित किया गया था। इस अधिनियम ने आधिकारिक तौर पर प्रांतों की स्वायत्तता की शुरुआत को चिह्नित किया था। इसने संघीय विधायिका की अवधारणा को भी स्थापित किया जिसमें दो सदन शामिल थे, अर्थात् राज्य परिषद और विधान सभा। एक बेहतर अलग विधायी प्रणाली के साथ एक अधिक स्थिर और विनियमित सरकार तैयार की गई। साथ ही, केंद्र और प्रांतों के बीच विधायी शक्ति के वितरण का प्रावधान भी पेश किया गया था। इतना ही नहीं, इस अधिनियम ने एक संघीय न्यायालय की भी स्थापना की थी। इस न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ 6 अन्य न्यायाधीशों की अधिकतम शक्ति होनी चाहिए थी।

भारतीय अभी भी अंग्रेजों से खुश नहीं थे और स्वराज चाहते थे। इसलिए, अंग्रेजों ने तब सर स्टैफ़ोर्ड क्रिप्स को भारतीय नेताओं के साथ बातचीत करने और विश्व युद्ध में उनका सहयोग सुनिश्चित करने के लिए भेजा। कुछ प्रस्ताव जैसे संवैधानिक निकाय का निर्माण, नियंत्रण और रक्षा की ज़िम्मेदारी आदि अंग्रेजों द्वारा दिए गए थे, हालाँकि, भारतीयों ने उन्हें अस्वीकार कर दिया। भारतीय कैबिनेट सरकार में कांग्रेस चाहते थे। 

बाद में, 1946 में कैबिनेट मिशन अंग्रेजों की कुछ सिफ़ारिशों के साथ भारत आया, जिन्हें स्वीकार कर लिया गया। प्रस्ताव में क्राउन की सर्वोपरिता की समाप्ति, संविधान बनाने के लिए एक संविधान सभा की स्थापना, एक अंतरिम सरकार की स्थापना और ब्रिटिश भारत के साथ-साथ राज्यों दोनों का गठन करने वाले भारतीय संघ का अस्तित्व शामिल था। 

1947 में भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम पारित किया गया था। इस अधिनियम ने पंद्रह अगस्त, 1947 से दो स्वतंत्र डोमिनियन, अर्थात् भारत और पाकिस्तान की स्थापना का प्रावधान किया। प्रत्येक डोमिनियन के लिए एक गवर्नर-जनरल को राजा द्वारा नियुक्त किया जाना था। इस अधिनियम ने दोनों डोमिनियनों की संविधान सभाओं को अपने क्षेत्रों के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया। इस अधिनियम ने भारत में ब्रिटिश शासन की सर्वोपरिता को समाप्त कर दिया था। इसमें आगे कहा गया कि जब तक डोमिनियन अपने-अपने संविधान नहीं बनाते, तब तक उन पर 1935 के अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार शासन किया जाएगा। इस प्रकार, भारत में ब्रिटिश शासन समाप्त हो गया था।

1947-1950: नये संविधान का निर्माण 

अंग्रेजों का शासन समाप्त होने के साथ ही भारतीय नेताओं के सामने एक नई चुनौती खड़ी थी। वे चाहते थे कि भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में खड़ा हो, साथ ही समानता, न्याय, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांतों पर आधारित लोकतंत्र की स्थापना हो। 

संविधान सभा ने कई बहसों और बैठकों के बाद, जनवरी 1948 में भारतीय संविधान का पहला मसौदा जारी किया। 1948 में प्रकाशित संविधान के मसौदे में संशोधन का सुझाव देने के लिए नागरिकों को आठ महीने का समय दिया गया था। 2 साल 11 महीने और 18 दिन की बैठक के बाद में भारत को अपना संविधान प्राप्त हुआ था। प्रारंभ में, संविधान बाईस भागों और आठ अनुसूचियों में फैले 395 अनुच्छेदों का एक संकलन था। 

भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताएं 

प्रत्येक संविधान अपने तरीके से अनोखा है। भारतीय संविधान का विकास बीसवीं सदी के मध्य में हुआ था जिससे एक तरह से संविधान निर्माण में लाभ हुआ था। इस समय तक, दुनिया भर के विभिन्न देशों ने अपना संविधान विकसित कर लिया था। इससे निर्माताओं को विभिन्न कानूनों, नियमों, सरकारी प्रणालियों आदि से संबंधित बड़ी मात्रा में ज्ञान प्राप्त करने में मदद मिली। इन संविधानों का विश्लेषण करने और विभिन्न संविधानों से क्या प्रावधान लिए जा सकते हैं, यह समझने से हमारे संविधान को बेहतर बनाने में मदद मिली। दुनिया के विभिन्न हिस्सों से अलग-अलग कानूनों का प्रभाव काफी व्यापक है। हमारा संविधान अपने अनोखे ढंग से विशिष्ट विशेषताओं वाला एक उत्कृष्ट दस्तावेज़ साबित हुआ। हालाँकि हमने कुछ प्रावधान अन्य देशों के संविधानों से लिए होंगे, लेकिन हमारे संविधान ने एक अलग रास्ता, नए पैटर्न और अपने स्वयं के दृष्टिकोण बनाए हैं। आइए भारत के संविधान की प्रमुख विशेषताओं पर एक नजर डालते हैं।

सबसे लंबा लिखित संविधान 

हमारा संविधान दुनिया का सबसे लंबा लिखित संविधान है जिसमें लगभग सभी महत्वपूर्ण पहलुओं से संबंधित विस्तृत प्रावधान हैं जिन पर एक लोकतांत्रिक देश को विचार करना चाहिए। संविधान के मूल मसौदे में 395 अनुच्छेद और आठ अनुसूचियाँ शामिल थीं। 

विस्तृत प्रस्तावना 

संविधान की प्रस्तावना, एक बहुत ही विस्तृत दस्तावेज़ है। यह कोई शक्ति नहीं देती, बल्कि यह संविधान को एक उद्देश्य और दिशा देती है। 

समाजवादी, कल्याणकारी और धर्मनिरपेक्ष राज्य 

प्रारंभ में भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी (सोशलिस्ट)’ शब्द मौजूद नहीं था। इसे 1976 में 42वें संशोधन द्वारा शामिल किया गया था। साथ ही हमारा संविधान भारत को एक कल्याणकारी राज्य के रूप में स्थापित करता है। संविधान यह भी कहता है कि हमारा देश एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है, अर्थात, धर्म का देश होने के बावजूद, भारतीय संविधान भारत के एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की वकालत करता है। 

सरकार का संसदीय स्वरूप 

संविधान केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर सरकार का संसदीय स्वरूप स्थापित करता है। इस प्रणाली में सरकार का कार्यकारी अंग निर्वाचित (इलेक्टेड) विधायिका के प्रति उत्तरदायी होता है। 

मौलिक अधिकार एवं कर्तव्य 

संविधान लोगों को कुछ अधिकारों की गारंटी देता है और ये अधिकार कानून द्वारा लागू करने योग्य हैं। ये मौलिक अधिकार संविधान के भाग IV के तहत निहित हैं। इसके अलावा यह लोगों को कुछ कर्तव्य और दायित्व भी प्रदान करता है जो संविधान के भाग IV A में निहित हैं। 

संघीय (फेडरल) संरचना

भारत का संविधान संघीय प्रकृति का है। भारतीय संविधान दोहरी राजनीति अर्थात केंद्र और राज्य स्तर पर सरकार स्थापित करता है। 

स्वतंत्र न्यायपालिका

भारत का संविधान एक स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना करता है, जो सरकार के अन्य अंगों से मुक्त होती है। 

कठोरता और लचीलेपन का अनोखा मिश्रण

संविधान में संशोधन की प्रक्रिया न तो बहुत लचीली है और न ही यह कठोर संविधान है, जिससे संशोधन की गुंजाइश शून्य हो जाती है। संविधान एक जीवंत दस्तावेज़ है जिसमें कठोरता और लचीलेपन का अनोखा मिश्रण है। 

भारतीय संविधान के उद्देश्य जो प्रस्तावना में दिये गये हैं 

भारत का संविधान विविधता में एकता के प्रतीक को दर्शाता है, जिसे प्रत्येक व्यक्ति और समुदाय के हितों की पर्याप्त रूप से रक्षा करने के लिए संविधान निर्माताओं द्वारा विशिष्ट रूप से तैयार किया गया है। संविधान की उल्लेखनीय विशेषताएं, संविधान द्वारा प्राप्त उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए निर्माताओं द्वारा किए गए कठिन कार्य का उदाहरण देती हैं। 

जैसा कि डॉ. बीआर अंबेडकर ने कहा था, “संविधान केवल वकीलों का दस्तावेज नहीं है, यह जीवन का वाहन है, और इसकी आत्मा हमेशा युग की भावना है।” संविधान के निर्माता, शासन का एक आदर्श मॉडल चाहते थे जो लोगों की जरूरतों को प्राथमिकता देते हुए देश की सेवा करेगा। उस समय के कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों की दूरदर्शिता और दूरदर्शी नेतृत्व से यह संविधान देश में समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व को बनाए रखने के साथ-साथ देश में सद्भाव को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बनाया गया था। महत्वपूर्ण महत्व के इस दस्तावेज़ ने पिछले 75 वर्षों से देश की सेवा की है और राष्ट्र के लिए एक प्रकाशस्तंभ के रूप में काम किया है।  

भविष्य के लिए एक लंबी दृष्टि को ध्यान में रखते हुए, संविधान ने जिन उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया, उनका उल्लेख इस प्रकार किया गया है:

संविधान की प्रस्तावना के शुरुआती शब्द, यानी, “हम भारत के लोग”, स्पष्ट घोषणा करते हैं कि अंतिम संप्रभुता भारत के लोगों के पास है और सरकार और उसके अंग भारत के लोगों से अपनी शक्ति प्राप्त करते हैं। यह शब्द पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता दिखाता है। एक ऐसा देश जो सभी बाहरी ताकतों और अपनी इच्छा से मुक्त है। 

हमारे संविधान में कई प्रावधान हैं जो एक कल्याणकारी राज्य को बढ़ावा देने की हमारे देश की नीति को स्पष्ट करते हैं, जो अस्तित्व में सभी क्षेत्रों में शोषण से मुक्त है। राज्य सामाजिक व्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए काम करने के लिए बाध्य है, जहां सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं से ऊपर है। समाजवाद का मुख्य उद्देश्य “सभी को बुनियादी न्यूनतम राशि” प्रदान करना है ।

धर्मनिरपेक्षता

इस शब्द का अर्थ है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा और सभी धर्मों को समान सुरक्षा मिलेगी। हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता की आदर्श अवधारणा इस बात पर कायम है कि राज्य किसी भी धर्म या धार्मिक विचार से निर्देशित नहीं होता है। 

‘न्याय’ शब्द में तीन तत्व शामिल हैं जो परिभाषा को पूरा करते हैं, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय हैं। समाज में व्यवस्था बनाए रखने के लिए नागरिकों के बीच न्याय आवश्यक है। भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के विभिन्न प्रावधानों के माध्यम से न्याय का वादा किया जाता है।

‘समानता’ शब्द का अर्थ है कि समाज के किसी भी वर्ग को कोई विशेष विशेषाधिकार नहीं है और सभी लोगों को बिना किसी भेदभाव के हर चीज के लिए समान अवसर दिए गए हैं। इसका अर्थ है समाज से सभी प्रकार के भेदभाव को दूर करके लोगों के रहने के लिए एक स्वस्थ वातावरण का निर्माण करना। कानून के समक्ष हर कोई समान है। 

‘स्वतंत्रता’ शब्द का अर्थ लोगों को अपने जीवन का तरीका चुनने और समाज में राजनीतिक विचार और व्यवहार रखने की स्वतंत्रता है। इसका मतलब है कि नागरिकों पर उनके विचारों, भावनाओं और विचारों के संदर्भ में कोई अनुचित प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है। लेकिन आज़ादी का मतलब कुछ भी करने की आजादी नहीं है, व्यक्ति कुछ भी कर सकता है लेकिन कानून द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर ही। जो कुछ भी सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करता है वह स्वतंत्रता के अंतर्गत नहीं आ सकता। यह समझना महत्वपूर्ण है कि स्वतंत्रता का अर्थ किसी भी तरह से ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ नहीं है। ये सीमाएँ या उचित प्रतिबंध संविधान द्वारा स्वतंत्रता के नाम पर किसी क्षति से बचने के लिए निर्धारित किए गए हैं।

‘बंधुता’ शब्द का अर्थ भाईचारे की भावना और देश और सभी लोगों के प्रति भावनात्मक लगाव है। यह उस भावना को संदर्भित करता है जो यह विश्वास करने में मदद करती है कि हर कोई एक ही मिट्टी की संतान है और एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। भाईचारा सामाजिक मानदंडों या नियमों से ऊपर है, यह जाति, उम्र या लिंग से ऊपर का रिश्ता है। बंधुत्व राष्ट्र में गरिमा और एकता को बढ़ावा देने में मदद करता है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना किसी को कोई शक्ति या श्रेष्ठता प्रदान नहीं करती है जबकि यह संविधान को दिशा और उद्देश्य देती है। यह केवल संविधान के मूल सिद्धांतों की जानकारी देता है। 

राष्ट्र की एकता और अखंडता 

प्रस्तावना और संविधान में बंधुता शब्द पर जोर देकर यह स्पष्ट किया गया है कि देश अपने लोगों के बीच एकता को बढ़ावा देना चाहता है। हमारे देश की आजादी, जो हमारे स्वतंत्रता सेनानियों की देन है, को बरकरार रखने के लिए राष्ट्र की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखना बहुत महत्वपूर्ण है। 

प्रस्तावना क्या है?

सामान्य तौर पर, कानूनी दस्तावेज़ के आदर्शों और लक्ष्यों की बेहतर समझ को सुविधाजनक बनाने के लिए दुनिया भर के संविधानों में एक प्रस्तावना शामिल होती है। हालाँकि, विभिन्न संविधानों की प्रस्तावना की लंबाई, पैटर्न, सामग्री और स्वरूप एक-दूसरे से भिन्न हो सकते हैं, कभी-कभी महत्वपूर्ण रूप से जबकि कभी-कभी बहुत मामूली अंतर होता है। सीधे शब्दों में कहें तो प्रस्तावना किसी अधिनियम, क़ानून, विधेयक या किसी अन्य दस्तावेज़ का एक परिचयात्मक भाग के अलावा और कुछ नहीं है। यह इस बात का संक्षिप्त विचार देता है कि दस्तावेज़ का वास्तव में क्या तात्पर्य है। 

भारत के संविधान की प्रस्तावना संविधान का एक परिचय है जिसमें देश के लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए नियमों और विनियमों का सेट शामिल है। इसमें नागरिकों की प्रेरणा और आदर्श वाक्य की व्याख्या की गई है। प्रस्तावना को संविधान की शुरुआत माना जा सकता है जो संविधान के आधार पर प्रकाश डालता है। 

अर्थ एवं परिभाषा

किसी क़ानून की प्रस्तावना कारणों का प्रारंभिक विवरण है, जो अंततः उस क़ानून के अधिनियमन या पारित होने को वांछनीय बनाता है। प्रस्तावना, क़ानून या किसी अन्य दस्तावेज़ का परिचयात्मक हिस्सा होने के कारण आम तौर पर दस्तावेज़ के मुख्य सार की शुरुआत से पहले रखी जाती है। प्रस्तावना को एक घोषणा के रूप में भी माना जा सकता है जो विधायिका क़ानून के अधिनियमन के कारणों को शामिल करते हुए करती है। यह वह परिचयात्मक भाग है जो क़ानून के प्रावधानों और उन प्रावधानों में मौजूद किसी भी अस्पष्टता की व्याख्या में मदद करता है। इसका उपयोग क़ानून की संक्षिप्त व्याख्या के रूप में किया जा सकता है।

ऑक्सफोर्ड एडवांस्ड लर्नर्स डिक्शनरी में परिभाषित ‘प्रस्तावना’ शब्द एक प्रारंभिक वक्तव्य को दर्शाता है जो किसी भी पुस्तक, दस्तावेज़, विधेयक, क़ानून आदि के उद्देश्य को स्पष्ट करता है। जबकि, इस शब्द को चैंबर्स ट्वेंटिएथ सेंचुरी डिक्शनरी में मुख्य रूप से संसद के एक अधिनियम की प्रस्तावना या परिचय, जो इसके अधिनियमन के कारण और उद्देश्य बताता है, के रूप में परिभाषित किया गया है। 

कानूनी परिभाषा के बारे में बात करते हुए, प्रसिद्ध ब्लैक लॉ डिक्शनरी इसे एक ऐसे खंड के रूप में परिभाषित करती है जो संविधान या क़ानून की शुरुआत में मौजूद होता है, जिसमें इसके अधिनियमन और उन उद्देश्यों के बारे में स्पष्टीकरण शामिल होता है जिनके लिए इसे पारित किया गया है। मरियम-वेबस्टर डिक्शनरी इसे कानून के इरादे को स्पष्ट करने और अधिनियमन के कारणों का उल्लेख करने के उद्देश्य से दिए गए एक परिचयात्मक बयान के रूप में परिभाषित करती है। जबकि, ब्रिटानिका डिक्शनरी इसे एक बयान के रूप में परिभाषित करती है जो एक कानूनी दस्तावेज़ की शुरूआत में दिया जाता है, जो आम तौर पर इसके बाद के हिस्सों के कारण और स्पष्टीकरण देता है। 

प्रस्तावना के कार्य

ऐसा कहा जाता है कि प्रस्तावना किसी दस्तावेज़, क़ानून, विधेयक या अधिनियम के लिए एक मंच तैयार करती है। यह एक परिचयात्मक या अभिव्यक्ति का बयान है जो संविधान के मूल्यों, लक्ष्यों, उद्देश्यों और सिद्धांतों को रेखांकित करता है। यह विशेष विधेयक, क़ानून आदि के निर्माताओं के लक्ष्यों और उद्देश्यों को प्रतिबिंबित करने वाली प्रस्तावना है। इसका प्रमुख कार्य अधिनियम के विशिष्ट तथ्यों को पढ़ना और समझाना है, जिन्हें अधिनियम को पढ़ने से पहले समझाना और सुनाना महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, इसका उपयोग एक दस्तावेज़ के रूप में भी किया जा सकता है जो दस्तावेज़ में निहित कुछ अभिव्यक्तियों के दायरे को प्रतिबंधित करेगा या अधिनियम में मौजूद परिभाषाओं के लिए स्पष्टीकरण और परिचय प्रदान करेगा। 

प्रस्तावना को एक महत्वपूर्ण साधन माना जाता है जो क़ानून के इरादों को दर्शाता है और क़ानून को समझने की कुंजी है। आम तौर पर, यह अधिनियम के पीछे विधायिका के उद्देश्य और उद्देश्य को बताता है या बताने का दावा करता है। सीधे शब्दों में कहें तो, प्रस्तावना का अर्थ किसी भी खंड, धारा या अनुसूची (शेड्यूल) में मौजूद किसी भी अस्पष्टता को स्पष्ट करने के उद्देश्य से परामर्श में वैध सहायता के रूप में कार्य करना है। इस प्रकार, एक प्रस्तावना दस्तावेज़ के स्रोत को दर्शाती है, इसमें दस्तावेज़ का अधिनियमित खंड शामिल होता है, और उन अधिकारों और स्वतंत्रता की घोषणा करता है जो दस्तावेज़ प्रदान करेगा। 

इसके अलावा, प्रस्तावना का प्रमुख रूप से व्याख्यात्मक महत्व होता है। यह दस्तावेज़ के प्रावधानों की व्याख्या करने में मदद करता है, और यह उन क़ानूनों की व्याख्या के स्रोत के रूप में भी कार्य करता है जो उस प्रस्तावना के दस्तावेज़ के उत्पाद हैं।

संविधान की प्रस्तावना का उद्देश्य संविधान के प्रावधानों के पीछे के उद्देश्य का परिचय देना है। जिस प्रेरणा और सार के आधार पर भारतीय संविधान का मसौदा तैयार किया गया है वह प्रस्तावना में सन्निहित है। यह संविधान के लक्ष्यों और सिद्धांतों पर प्रकाश डालने वाला भाग है। भारत के संविधान की प्रस्तावना संविधान की विचारधारा और अधिकार का प्रतीक है।

प्रस्तावना संविधान के प्रावधानों की बेहतर व्याख्या का मार्ग प्रशस्त करती है। इस प्रकार, यह संविधान के प्रावधानों की व्याख्या करने में एक वैध सहायता है। संविधान सभा की बहसों में, सर अल्लादी कृष्णास्वामी ने कहा कि प्रस्तावना एक ऐसी चीज़ है जो यह व्यक्त करती है कि “हमने इतने लंबे समय तक क्या सोचा या सपना देखा था” । भारतीय संविधान के निर्माताओं द्वारा इसे “गौरव का स्थान” दिया गया है। यह निर्माताओं के दिमाग को खोलता है और उन्हें संविधान के विभिन्न प्रावधानों को लागू करने के पीछे के सामान्य उद्देश्य को साकार करने में मदद करता है। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के मामले में न्यायमूर्ति शेलट और न्यायमूर्ति ग्रोवर ने था कहा कि भारत के संविधान की प्रस्तावना उन सभी आदर्शों और उद्देश्यों को ईमानदारी से धार्मिक रूप में प्रस्तुत करती है जिनके लिए भारत ने इतने लंबे समय से सपना देखा है और पूरे औपनिवेशिक काल के दौरान संघर्ष किया है।

प्रस्तावना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 

संविधान सभा को जो पहला काम करना था उनमें से एक लक्ष्य, उद्देश्यों और मार्गदर्शक सिद्धांतों को बनाना और तैयार करना था जो संविधान का आधार बनेंगे। जिन सिद्धांतों और उद्देश्यों को तैयार किया जाना था, वे उस लोकतांत्रिक भावना जिसके लिए भारत का संविधान खड़ा था को प्रतिबिंबित करने वाले थे। 

1946 में राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा एक विशेषज्ञ समिति नियुक्त की गई थी। समिति ने 22 जुलाई की अपनी बैठक में एक ‘घोषणा’ का मसौदा तैयार किया जिसमें संविधान के उद्देश्य शामिल थे। इस मसौदे की सामग्री के आधार पर, नेहरू ने एक मसौदा प्रस्ताव पेश किया, जिसे ‘वस्तुनिष्ठ संकल्प (ऑब्जेक्टिव रिजॉल्यूशन)’ के रूप में जाना गया था। इसे 13 दिसंबर 1946 को संविधान सभा के समक्ष प्रस्तुत किया गया था। इसके अलावा नेहरू ने एक लंबा भाषण दिया जिसमें मुख्य रूप से संविधान की व्यापक विशेषताओं, उद्देश्यों और आकांक्षाओं के बारे में बात की गई थी। लंबी बहस के बाद इस प्रस्ताव को 22 जनवरी, 1947 को विधानसभा द्वारा अपनाया गया था। 

इस वस्तुनिष्ठ संकल्प की मुख्य सामग्री संक्षेप में इस प्रकार बताई गई है:

  • भारत को एक स्वतंत्र संप्रभु गणराज्य घोषित करने का संविधान सभा का दृढ़ संकल्प जो भविष्य में संविधान द्वारा शासित होगा। 
  • कि, भारत के वे क्षेत्र जो अंग्रेजों के अधीन थे और अन्य प्रांत जो अंग्रेजों के अप्रत्यक्ष शासन के अधीन थे, मिलकर ‘भारत संघ’ बनाएंगे।
  • उक्त क्षेत्र जो भारत संघ का हिस्सा बनेंगे, स्वायत्त इकाइयाँ होंगी, जिनके पास शक्तियाँ होंगी और वे सरकार के रूप में कार्य करेंगी। 
  • कि, राज्य इकाइयों की शक्तियाँ और अधिकार स्वतंत्र संप्रभु के लोगों से प्राप्त होंगे।
  • भारत के सभी लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की सुरक्षा और गारंटी दी जाएगी;  साथ ही पद, अवसर और कानून के समक्ष समानता; कानून और सार्वजनिक नैतिकता के अधीन विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, विश्वास, पूजा, व्यवसाय, संघ और कार्रवाई की स्वतंत्रता दी जाएगी।
  • अल्पसंख्यकों, दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों और आदिवासी क्षेत्रों के लोगों को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की जाएगी। 
  • कि, न्याय और सभ्य राष्ट्रों के कानून के अनुसार गणतंत्र के पास भूमि, समुद्र और वायु पर संप्रभु अधिकार होंगे, और क्षेत्रों की अखंडता बनाए रखी जाएगी।  
  • कि, देश का दुनिया में एक उचित और सम्मानित स्थान है और वह शांति, सद्भाव और मानव जाति के कल्याण को बढ़ावा देने में योगदान देने को तैयार है।

संस्थापकों ने वस्तुनिष्ठ संकल्प को “कुछ ऐसा जो मानव जाति में जीवन की सांस लेता है” के रूप में वर्णित किया था। इसे एक प्रकार की आध्यात्मिक प्रस्तावना के रूप में भी माना जाता था जो संविधान के प्रत्येक धारा, खंड और अनुसूची में व्याप्त होगी। 

इसके बाद, बीएन राव ने प्रस्तावना का एक मसौदा तैयार किया जिसे इस प्रकार पढ़ा जा सकता है; “हम, भारत के लोग, सबकी भलाई को बढ़ावा देना चाहते हैं, अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से इस संविधान को अधिनियमित करते हैं, अपनाते हैं और खुद को सौंपते हैं”।

बीएन राव द्वारा तय किए गए मसौदे को 4 जुलाई, 1947 को संविधान सभा के समक्ष दोबारा प्रस्तुत किया गया था। संघ संविधान सभा ने निर्णय लिया कि भारत के संविधान की प्रस्तावना वस्तुनिष्ठ संकल्प पर आधारित होगी। बाद में, नेहरू ने सुझाव दिया कि प्रस्तावना का मसौदा तैयार करने को विभाजन तक स्थगित कर दिया जाना चाहिए। 

विधानसभा की मसौदा समिति ने निर्णय लिया कि प्रस्तावना को नए भारत की आवश्यक विशेषताओं और इसके बुनियादी सामाजिक-राजनीतिक उद्देश्यों के साथ-साथ उद्देश्य प्रस्ताव में निपटाए गए अन्य मामलों तक ही सीमित रखा जाना चाहिए। कई बैठकों और लंबी बहस के बाद, संविधान द्वारा एक पुनः प्रारूपित प्रस्तावना प्रस्तुत की गई थी। कुछ बदलावों के बाद जैसे ‘संप्रभु भारतीय गणराज्य’ शब्द को ‘संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य’ अभिव्यक्ति से बदलना, ‘राष्ट्र की एकता’ शब्द को ‘राष्ट्र की एकता और अखंडता’ से बदल दिया गया, जिसमें ‘बंधुता’ शब्द जोड़ा गया जो था वर्तमान में मूल रूप से वस्तुनिष्ठ संकल्प में नहीं है, और अल्पसंख्यकों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए सुरक्षा प्रावधानों से संबंधित खंड को समाप्त कर दिया गया है। 

कई संशोधन पेश किए जाने और खारिज किए जाने के बाद, प्रस्तावना तैयार की गई जिसमें काफी हद तक वस्तुनिष्ठ संकल्प की भाषा और भावना शामिल थी। संविधान को अंतिम रूप देने के बाद प्रस्तावना के प्रारूप को अंतिम रूप दिया गया ताकि यह संविधान के अनुरूप हो सके। 

प्रस्तावना को परिभाषित करने के लिए प्रख्यात व्यक्तियों के कुछ शब्द

उपरोक्त चर्चा स्पष्ट रूप से बताती है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना न केवल भारत के संविधान की व्याख्या करने में बल्कि अधिनियम के इरादे और उद्देश्य को समझने, कुछ अभिव्यक्तियों की अस्पष्टता से निपटने आदि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। नीचे कुछ वाक्यांश दिए गए हैं और कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों द्वारा प्रस्तावना को परिभाषित करने के लिए प्रयुक्त कथन दिए है। 

मुख्य न्यायाधीश सर डायर का कहना है कि प्रस्तावना “संविधान के निर्माताओं के दिमाग को खोलने की कुंजी” है, श्री केएम मुंशी इसे “संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य की जन्मकुंडली” के रूप में बताते हैं, और सर अर्नेस्ट पार्कर इसे “संविधान के मुख्य वक्ता” के रूप में बताते हैं। सर पंडित ठाकुर दास भार्गव इसे “संविधान का सबसे कीमती हिस्सा, यह संविधान की आत्मा है। यह संविधान की कुंजी है” के रूप में मानते हैं। नेहरू ने प्रस्तावना के लक्ष्यों और उद्देश्यों पर जोर देते हुए कहा कि यह एक “दृढ़ संकल्प और ठोस वादा” है।

भारत की प्रस्तावना और इसे अपनाने की तारीख किसने लिखी?

भारतीय संविधान की प्रस्तावना मुख्यतः जवाहरलाल नेहरू द्वारा लिखित ‘वस्तुनिष्ठ संकल्प’ पर आधारित है। जैसा कि उपरोक्त पैराग्राफ में चर्चा की गई है, श्री नेहरू ने वस्तुनिष्ठ संकल्प, जिसके आधार पर वर्तमान प्रस्तावना मौजूद है, 13 दिसंबर, 1946 को पेश किया था और 22 जनवरी 1947, संविधान सभा द्वारा संकल्प की स्वीकृति की तारीख को चिह्नित करता है। 

संविधान की प्रस्तावना, जिसे संविधान की भावना, रीढ़ और आत्मा भी कहा जाता है, वह सब कुछ दर्शाती है जिसे संविधान हासिल करना चाहता है। इसे 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया था और इसकी प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) तिथि 26 जनवरी 1950 है जिसे गणतंत्र दिवस के रूप में भी जाना जाता है। 

भारतीय संविधान की प्रस्तावना के घटक

प्रस्तावना के निम्नलिखित घटक हैं:

हम भारत के लोग 

प्रस्तावना के शुरुआती शब्दों से पता चलता है कि भारत के लोग सत्ता का स्रोत हैं और भारत का संविधान भारत के लोगों की इच्छा का परिणाम है। इसका मतलब है कि अपने प्रतिनिधियों को चुनने की शक्ति नागरिकों के पास है और उन्हें अपने प्रतिनिधियों की आलोचना करने का भी अधिकार है। 

भारत संघ बनाम मदन गोपाल काबरा (1954) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भारत के लोग ही भारतीय संविधान के स्रोत हैं, जैसा कि प्रस्तावना में लिखा गया है।

संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, गणतंत्र, लोकतांत्रिक

प्रस्तावना लोगों की इच्छा से भारत को ‘संप्रभु’, ‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’, ‘लोकतांत्रिक’ और ‘गणतंत्र’ घोषित करती है। ये चार शब्द भारतीय राज्य की प्रकृति को दर्शाते हैं। 

आइए इन शब्दों का संक्षिप्त अवलोकन करें।

संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि भारत एक संप्रभु राज्य है। ‘संप्रभु’ शब्द का अर्थ राज्य की स्वतंत्र सत्ता है। इसका मतलब है कि राज्य का हर विषय पर नियंत्रण है और किसी अन्य प्राधिकारी या बाहरी शक्ति का उस पर नियंत्रण नहीं है। इसलिए, हमारे देश की विधायिका के पास संविधान द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को ध्यान में रखते हुए देश में कानून बनाने की शक्तियां हैं। 

सामान्यतः संप्रभुता दो प्रकार की होती है: बाहरी और आंतरिक। अंतर्राष्ट्रीय कानून में बाहरी संप्रभुता का अर्थ ऐसी संप्रभुता है जिसका अर्थ है अन्य राज्यों के विरुद्ध राज्य की स्वतंत्रता जबकि आंतरिक संप्रभुता राज्य और उसमें रहने वाले लोगों के बीच संबंधों की बात करती है। 

सिंथेटिक एंड केमिकल्स लिमिटेड बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1989) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि ‘संप्रभु’ शब्द का अर्थ है कि राज्य को संविधान द्वारा दिए गए प्रतिबंधों के भीतर सब कुछ नियंत्रित करने का अधिकार है। संप्रभु का अर्थ सर्वोच्च या स्वतंत्रता है। इस मामले ने बाहरी और आंतरिक संप्रभु के बीच अंतर करने में मदद की। इस मामले में प्रस्तावित किया गया कि ‘किसी भी देश का अपना संविधान तब तक नहीं हो सकता जब तक वह संप्रभु न हो।’ 

‘समाजवादी’ शब्द आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन, 1976 के बाद जोड़ा गया था। समाजवादी शब्द लोकतांत्रिक समाजवाद को दर्शाता है। इसका मतलब एक राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था से है जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान करती है। 

श्रीमती इंदिरा गांधी ने समाजवादी को ‘अवसर की समानता’ या ‘लोगों के लिए बेहतर जीवन’ के रूप में समझाया था। उन्होंने कहा कि समाजवाद लोकतंत्र की तरह है, हर किसी की अपनी-अपनी व्याख्याएं होती हैं लेकिन भारत में समाजवाद लोगों के बेहतर जीवन का एक रास्ता है। 

  • एक्सेल वेयर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1978) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि समाजवादी शब्द जोड़ने के साथ, राष्ट्रीयकरण और उद्योग (इंडस्ट्री) के राज्य स्वामित्व के पक्ष में निर्णय जानने के लिए एक पोर्टल खोला गया था। लेकिन समाजवाद और सामाजिक न्याय का सिद्धांत समाज के एक अलग वर्ग, मुख्य रूप से निजी मालिकों के हितों की अनदेखी नहीं कर सकता है। 
  • डी.एस. नकारा बनाम भारत संघ (1982) के मामले में, न्यायालय ने कहा कि “समाजवाद का मूल उद्देश्य देश में रहने वाले लोगों को एक सभ्य जीवन स्तर प्रदान करना है और उनके जन्म के दिन से उनके मरने के दिन तक ही उनकी रक्षा करना है।” 

धर्मनिरपेक्ष

‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द भी आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा जोड़ा गया था। संविधान भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बताता है क्योंकि राज्य का कोई भी अपना आधिकारिक धर्म नहीं है। नागरिकों का जीवन के प्रति अपना- अपना दृष्टिकोण है और वे अपनी इच्छानुसार अपना धर्म चुन सकते हैं। राज्य लोगों को अपनी पसंद के किसी भी धर्म का पालन करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करता है। राज्य सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करता है, समान सम्मान देता है और उनके बीच कोई भेदभाव नहीं कर सकता है। राज्य को लोगों की पसंद के धर्म, आस्था या पूजा की मूर्ति के मामले में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। 

धर्मनिरपेक्षता के महत्वपूर्ण घटक मिनलिखित हैं:

  • समानता का अधिकार संविधान के  अनुच्छेद 14 द्वारा गारंटीकृत है।
  • संविधान के  अनुच्छेद 15 और 16 द्वारा धर्म, जाति आदि जैसे किसी भी आधार पर भेदभाव निषिद्ध है।
  • संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 नागरिकों की सभी स्वतंत्रताओं की चर्चा करते हैं, जिनमें बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी शामिल है। 
  • अनुच्छेद 24 से अनुच्छेद 28 तक धर्म का पालन करने से संबंधित अधिकार शामिल हैं।
  • संविधान के अनुच्छेद 44 ने सभी नागरिकों को समान मानते हुए समान नागरिक कानून बनाने के राज्य के मौलिक कर्तव्य को त्याग दिया।

एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय की नौ-न्यायाधीशों की पीठ के द्वारा धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को संविधान की मूल विशेषता के रूप में पाया गया था। 

बाल पाटिल बनाम भारत संघ (2005) के मामले में, न्यायालय ने माना कि सभी धर्मों और धार्मिक समूहों के साथ बराबर रूप से और समान सम्मान के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है जहां लोगों को अपना धर्म चुनने का अधिकार है। लेकिन राज्य का अपना कोई भी विशिष्ट धर्म नहीं होगा। 

एम. पी. गोपालकृष्णन नायर बनाम केरल राज्य (2005) के मामले में, न्यायालय द्वारा कहा गया कि धर्मनिरपेक्ष राज्य नास्तिक समाज से अलग है, जिसका अर्थ है कि राज्य हर धर्म की अनुमति देता है और किसी का अनादर नहीं करता है। 

लोकतांत्रिक

लोकतांत्रिक जिसे अंग्रेजी में ‘डेमोक्रेटिक’ कहा जाता है वह ग्रीक शब्दों ‘डेमोस’ और ‘क्रेटोस’ से लिया गया है जहां ‘डेमोस’ का अर्थ ‘लोग’ है और ‘क्रेटोस’ का अर्थ ‘अधिकार’ है। इन शब्दों का सामूहिक अर्थ है कि सरकार का निर्माण लोगों द्वारा किया जाता है। भारत एक लोकतांत्रिक राज्य है क्योंकि लोग सभी स्तरों पर, यानी संघ, राज्य और स्थानीय या बुनियादी स्तर पर अपनी सरकार चुनते हैं। हर किसी को अपनी जाति, पंथ या लिंग की परवाह किए बिना मतदान करने का अधिकार है। इसलिए, सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप में, प्रत्येक व्यक्ति की प्रशासन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हिस्सेदारी होती है। 

मोहन लाल बनाम राय बरेली के जिला मजिस्ट्रेट (1992)  के मामले में, न्यायालय ने कहा कि लोकतंत्र राजनीति से संबंधित एक दार्शनिक (फिलोसॉफिकल) विषय है जहां लोग सरकार बनाने के लिए अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं, जहां मूल सिद्धांत अल्पसंख्यकों के साथ वैसा ही व्यवहार करना है जैसा लोग बहुसंख्यकों के साथ व्यवहार करते हैं। सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप में प्रत्येक नागरिक कानून के समक्ष समान है। 

भारत संघ बनाम एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (2002) के मामले में, न्यायालय का कहना है कि एक सफल लोकतंत्र की बुनियादी आवश्यकता लोगों की जागरूकता है। सरकार का लोकतांत्रिक स्वरूप निष्पक्ष चुनाव के बिना जीवित नहीं रह सकता क्योंकि निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आत्मा हैं। लोकतंत्र मानवीय गरिमा, समानता और कानून के शासन की रक्षा करके जीवन के तरीके को भी बेहतर बनाता है। 

भारत में सरकार का स्वरूप गणतांत्रिक है क्योंकि यहां पर राज्य का प्रमुख निर्वाचित होता है, और राजा या रानी की तरह वंशानुगत राजा नही होता है। गणतंत्र शब्द को अंग्रेजी में ‘रिपब्लिक’ कहा जाता है जिसे ‘रेस पब्लिका’ से लिया गया है जिसका अर्थ है सार्वजनिक संपत्ति या राष्ट्रमंडल। इसका मतलब है कि एक निश्चित अवधि के लिए राज्य के प्रमुख को चुनने की शक्ति लोगों के पास है। तो, निष्कर्ष में, ‘गणतंत्र’ शब्द एक ऐसी सरकार को दर्शाता है जहां राज्य का प्रमुख किसी जन्मसिद्ध अधिकार के बजाय लोगों द्वारा चुना जाता है। हमारी प्रस्तावना में सन्निहित यह शब्द दृढ़ता से दर्शाता है कि देश लोगों द्वारा चलाया जाएगा, न कि चुने गए लोगों की इच्छा और मर्जी से। देश के लोगों की इच्छा को प्राथमिकता में रखते हुए हर चीज और किसी भी चीज़ का कानून बनाया जाएगा, निष्पादित किया जाएगा और शासित किया जाएगा। 

न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुआ

प्रस्तावना में आगे देश के सभी नागरिकों को ‘न्याय’, ‘स्वतंत्रता’, ‘समानता’ और ‘बंधुता’ सुरक्षित करने की घोषणा की गई है। 

जैसा कि पहले भी चर्चा की गई है, न्याय शब्द में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय शामिल होता है। 

  • सामाजिक न्याय – सामाजिक न्याय का अर्थ है कि संविधान जाति, पंथ, लिंग, धर्म इत्यादि जैसे किसी भी आधार पर भेदभाव के बिना एक समाज बनाना चाहता है जहां कम विशेषाधिकार प्राप्त लोगों की मदद करके लोगों को समान सामाजिक स्थिति प्राप्त हो। संविधान समाज में समानता को नुकसान पहुंचाने वाले सभी शोषणों को खत्म करने का प्रयास करता है।
  • आर्थिक न्याय – आर्थिक न्याय का अर्थ है कि लोगों के साथ उनकी संपत्ति, आय और आर्थिक स्थिति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है। इसका मतलब है कि धन का वितरण उनके काम के आधार पर किया जाना चाहिए, किसी अन्य कारण से नहीं। प्रत्येक व्यक्ति को समान पद के लिए समान वेतन मिलना चाहिए और सभी लोगों को अपने जीवन यापन के लिए कमाने के अवसर मिलने चाहिए।
  • राजनीतिक न्याय – राजनीतिक न्याय का अर्थ है सभी लोगों को बिना किसी भेदभाव के राजनीतिक अवसरों में भाग लेने का समान, स्वतंत्र और निष्पक्ष अधिकार है। इसका मतलब है कि सभी को राजनीतिक कार्यालयों तक पहुंचने का समान अधिकार है और सरकार की प्रक्रियाओं में समान भागीदारी है। 

स्वतंत्रता शब्द में विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, और पूजा की स्वतंत्रता  शामिल है। 

समानता शब्द का तात्पर्य प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान स्थिति और अवसर से है। 

अंत में, बंधुता शब्द का उद्देश्य प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा (डिग्निटी) की रक्षा करने की प्रतिज्ञा के साथ-साथ राष्ट्र की एकता और अखंडता को बनाए रखना है।

अपनाने की तारीख

इसमें इसके अपनाने की तारीख शामिल है जो की 26 नवंबर, 1949 है। यहां यह ध्यान रखना उचित है कि प्रस्तावना का मसौदा भारतीय संविधान के निर्माण के बाद तैयार किया गया था। हालाँकि, दोनों की प्रारंभ तिथि 26 जनवरी 1950 ही दी गई है।

संविधान की व्याख्या में सहायता के रूप में प्रस्तावना 

जैसा कि नीचे चर्चा की गई है, सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि प्रस्तावना संविधान का एक हिस्सा है, हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि प्रस्तावना को भारतीय संविधान में दिए गए स्पष्ट प्रावधानों को खत्म करने का अधिकार मिल गया है। यदि संविधान में उल्लिखित किसी भी अनुच्छेद में प्रयुक्त शब्दों के दो अर्थ हैं या अस्पष्ट हैं, तो प्रस्तावना उस प्रावधान के उद्देश्य की व्याख्या और समझने में एक मूल्यवान सहायता के रूप में कार्य करती है। प्रस्तावना में निहित उद्देश्यों से काफी हद तक सहायता ली जा सकती है।

न्यायमूर्ति सीकरी के द्वारा केशवानंद भारती के मामले में प्रस्तावना के महत्व पर जोर देते हुए कहा गया कि, “मुझे ऐसा लगता है कि हमारे संविधान की प्रस्तावना अत्यधिक महत्वपूर्ण है और संविधान को प्रस्तावना में व्यक्त महान दृष्टिकोण की भव्यता के आलोक में पढ़ा और उसकी व्याख्या की जानि चाहिए।”

संविधान के  अनुच्छेद 368 के तहत संसद को दी गई संशोधन की शक्ति पर निहित सीमाएं लगाते समय प्रस्तावना का भी उपयोग किया गया और उस पर भरोसा किया गया था।

रणधीर सिंह बनाम भारत संघ (1982) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने प्रस्तावना के मुख्य शब्दों पर विचार करते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 39(d) में “समान काम के लिए समान वेतन” भी शामिल है, जो लिंग की परवाह किए बिना एक संवैधानिक अधिकार है। हमारी प्रस्तावना स्पष्ट रूप से अपने लोगों को पद और अवसर की समानता प्रदान करने का प्रावधान करती है और इसके अनुसरण में, न्यायालय ने समान काम के लिए समान वेतन को संवैधानिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया है। 

भारतीय संविधान की प्रस्तावना, किसी अधिनियम की प्रस्तावना से अलग है 

जहां तक ​​भारतीय संविधान की प्रस्तावना का सवाल है, यह किसी भी अन्य अधिनियम की प्रस्तावना से पूरी तरह अलग है। आम तौर पर, किसी भी अधिनियम की प्रस्तावना विधायिका द्वारा अधिनियमित नहीं की जाती है, और यही कारण है कि इसका उपयोग किसी अधिनियम के प्रावधानों की अस्पष्टता को दूर करने तक ही सीमित है। हालाँकि, जहाँ तक भारतीय संविधान की प्रस्तावना का सवाल है, इसे संविधान की तरह ही उसी तरीके और प्रक्रिया से संविधान सभा द्वारा अधिनियमित और अपनाया गया था। 

इस तथ्य को प्रस्तावना के इतिहास से और अधिक पुष्ट किया जा सकता है। प्रारंभ में, प्रस्तावना को वस्तुनिष्ठ संकल्प के रूप में संविधान सभा में पेश किया गया था। ये संकल्प पहले कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे थे जिन पर चर्चा की जानी थी और आगे के विचार-विमर्श के लिए मार्गदर्शक के रूप में निर्णय लिया जाना था। संपूर्ण संविधान के पूरा होने के बाद यानी अंत में प्रस्तावना को अंतिम रूप दिया गया था। इसके पीछे कारण यह था कि संविधान के निर्माता संविधान के अनुरूप रहना चाहते थे क्योंकि यह उसका एक हिस्सा है। 

क्या प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है?

प्रस्तावना संविधान का परिचय है। इसमें संविधान के आदर्श और सिद्धांत शामिल हैं और यह उस उद्देश्य या उद्देश्यों को दर्शाता है जिसे संविधान प्राप्त करना चाहता था। पुनित ठाकुर दास (केंद्रीय विधान सभा के लिए निर्वाचित) ने संविधान सभा में चल रही एक बहस के दौरान प्रस्तावना के महत्व पर जोर दिया और कहा कि, “प्रस्तावना संविधान का सबसे कीमती हिस्सा है। यह संविधान की आत्मा है। यह संविधान की कुंजी है। यह संविधान में स्थापित एक रत्न है।”

यह प्रश्न कि क्या प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है या नहीं, लंबे समय से बहस का विषय था और अंततः केशवानंद भारती मामले में सुलझाया गया था (जैसा कि बाद के खंड में चर्चा की गई है)। यह समझने में कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है या नहीं, दो मामले, अर्थात् बेरुबारी मामला और केशवानंद भारती मामला, महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रारंभ में, सर्वोच्च न्यायालय का विचार यह था कि प्रस्तावना भारत के संविधान का हिस्सा नहीं है। हालाँकि, बाद में, केशवानंद भारत मामले में इसे उलट दिया गया था।

आइए उपरोक्त दोनों मामलों पर एक नजर डालते हैं। 

बेरुबारी संघ और… बनाम अज्ञात (1960)

बेरुबारी मामला संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत राष्ट्रपति के संदर्भ के माध्यम से उत्पन्न हुआ था, जो बेरुबारी संघ से संबंधित भारत-पाकिस्तान समझौते के कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) पर था। अदालत के सामने मुद्दा यह तय करना था कि क्या संविधान का अनुच्छेद 3 संसद को देश के किसी भी हिस्से को किसी विदेशी देश को देने की शक्ति देता है। न्यायालय के समक्ष दूसरा मुद्दा यह था कि क्या नेहरू-नून समझौते के अनुपालन के लिए विधायी कार्रवाई आवश्यक है। हालाँकि, इस लेख का प्रासंगिक भाग प्रस्तावना के संविधान का हिस्सा होने के प्रश्न तक ही सीमित है, जिसे इस मामले में भी निपटाया गया था।

इस मामले के माध्यम से न्यायालय ने कहा था कि ‘प्रस्तावना निर्माताओं के दिमाग को खोलने की कुंजी है’ लेकिन इसे संविधान का हिस्सा नहीं माना जा सकता है। अदालत ने ऐसा कहते हुए अमेरिका के एक प्रसिद्ध प्रोफेसर विलो के एक उद्धरण पर भरोसा किया, जिसमें उन्होंने इस तथ्य पर जोर दिया है कि अमेरिकी संविधान की प्रस्तावना कभी भी शक्ति का स्रोत नहीं रही है। प्रोफ़ेसर ने कहा और मैं उद्धृत (साइट) कर रहा हूँ “इसे कभी भी संयुक्त राज्य सरकार या उसके किसी भी विभाग को प्रदत्त किसी ठोस शक्ति का स्रोत नहीं माना गया है। ऐसी शक्तियाँ केवल उन्हें ही शामिल करती हैं जो संविधान में स्पष्ट रूप से दी गई हैं और जो इस प्रकार दी गई शक्तियों से निहित हो सकती हैं।”

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य और अन्य (1973)

इस मामले ने इतिहास रचा और यह काफी महत्व रखता है। इस ऐतिहासिक मामले की सुनवाई के लिए 13 न्यायाधीशों की एक पीठ का गठन किया गया था, जिसमें अदालत के सामने सवाल यह था कि क्या संसद के पास प्रस्तावना में संशोधन करने की शक्ति है और यदि है तो इस शक्ति का प्रयोग किस हद तक किया जा सकता है। इसके साथ ही याचिकाकर्ता ने संविधान के 24वें और 25वें संशोधन को भी चुनौती दी थी। इस मामले में न्यायालय ने माना है कि:

  • संविधान की प्रस्तावना को अब संविधान का हिस्सा माना जाएगा। 
  • प्रस्तावना किसी सर्वोच्च शक्ति नही है या प्रतिबंध या निषेध की स्रोत नहीं है, लेकिन यह संविधान के क़ानूनों और प्रावधानों की व्याख्या में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 

तो, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रस्तावना संविधान के परिचयात्मक भाग का हिस्सा है। 

केशवानंद भारती मामले के फैसले के बाद यह स्वीकार किया गया कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है। अदालत ने संविधान सभा के विभिन्न अंशों पर भरोसा किया, जिसमें यह तर्क दिया गया था कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा होगी। इसलिए, संविधान के एक भाग के रूप में, इसे संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संशोधित किया जा सकता है, लेकिन प्रस्तावना की मूल संरचना में संशोधन नहीं किया जा सकता है। क्योंकि संविधान की संरचना प्रस्तावना के मूल तत्वों पर आधारित है। 

प्रस्तावना में संशोधन

अनुच्छेद 368 के तहत दी गई संशोधन शक्तियों के तहत संसद द्वारा प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है या नहीं, यह सवाल पहली बार केशवानंद भारती मामले में शीर्ष अदालत के सामने आया था। अदालत ने कहा कि चूंकि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है, इसलिए इसमें संशोधन किया जा सकता है, हालांकि, इसका दायरा सीमित है। इसमें इस प्रकार संशोधन नहीं किया जा सकता कि प्रस्तावित संशोधन बुनियादी सुविधाओं को नष्ट कर दे। यह राय दी गई थी कि हमारे संविधान का आधार काफी हद तक प्रस्तावना में सन्निहित मूल तत्वों पर आधारित है। इनमें से किसी भी तत्व के नष्ट होने या हटाए जाने की स्थिति में संविधान का प्रयोजन और उद्देश्य पूरा नहीं होगा। संसद की संशोधन शक्ति किसी भी तरह से यह नहीं दर्शाती है कि उसके पास संवैधानिक नीति के बुनियादी सिद्धांतों और आवश्यक विशेषताओं को छीनने या बाधित करने का अधिकार है। ऐसा करने का परिणाम केवल संविधान को पूरी तरह से बर्बाद करना होगा। 

भारत के संविधान के लागू होने के बाद से इसमें कई बार संशोधन किया गया है। संविधान एक जीवंत दस्तावेज है और यह महत्वपूर्ण है कि कोई भी कानून समाज की जरूरतों के अनुसार बदले। हालाँकि, प्रस्तावना में संशोधन का एकमात्र उदाहरण वर्ष 1976 में था। यह संशोधन इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन सरकार द्वारा पेश किया गया था जिसने प्रस्तावना को उसके वर्तमान स्वरूप में छोड़ दिया था। इस संशोधन द्वारा जो तीन शब्द जोड़े गए वे थे धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और अखंडता। ऐसा नहीं था कि इस संशोधन से पहले ये अवधारणाएँ संविधान का हिस्सा नहीं थीं। इस संशोधन में प्रस्तावना में इन शब्दों का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके इन अवधारणाओं को स्पष्ट रूप से वर्णित किया गया था।  

42वें संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा लाए गए दो परिवर्तनों का उल्लेख इस प्रकार है:

42वां संशोधन अधिनियम, 1976

42वां संशोधन अधिनियम, 1976 संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करने वाला पहला अधिनियम था। 18 दिसंबर, 1976 को आर्थिक न्याय की रक्षा करने और किसी भी तरह के भेदभाव को खत्म करने के लिए प्रस्तावना में ‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘अखंडता’ शब्दों को जोड़ा गया था। इस संशोधन के माध्यम से ‘संप्रभु’ और ‘लोकतांत्रिक’ के बीच ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को जोड़ा गया और ‘राष्ट्र की एकता’ को ‘राष्ट्र की एकता और अखंडता’ में बदल दिया गया था। 

दो शब्दों अर्थात् ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ को प्रस्तावना में जोड़ने का यह संशोधन, संशोधन अधिनियम, 1976 की धारा 2 द्वारा किया गया था। इसके अलावा, “राष्ट्र की एकता” शब्द का प्रतिस्थापन “राष्ट्र की एकता और अखंडता” के साथ किया गया था जिसका उल्लेख अधिनियम की धारा 2 में किया गया था। 

हालाँकि, एसआर बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि भले ही प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता शब्द को 1976 के अधिनियम द्वारा बाद के चरण में जोड़ा गया था, लेकिन संविधान के प्रावधानों में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा शामिल थी, हालांकि यह सीधे रूप से शामिल नहीं थी।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा व्याख्या

भारतीय संविधान के पूर्ण निर्माण के बाद प्रस्तावना को अंतिम रूप दिया गया था। बेरुबारी संघ मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि प्रस्तावना इसके निर्माताओं के दिमाग को खोलने की कुंजी है, हालांकि, इसे संविधान का हिस्सा नहीं माना जा सकता है। प्रस्तावना को संविधान के प्रावधानों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत माना जाना चाहिए। 

केशवानंद भारती मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पिछले फैसले को बदल दिया और प्रस्तावना को संविधान के हिस्से के रूप में स्वीकार कर लिया, जिसका अर्थ है कि इसे संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संशोधित किया जा सकता है। इस ऐतिहासिक मामले में, प्रस्तावना को संविधान के एक भाग के रूप में शामिल करके, यह राय दी गई कि प्रस्तावना एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह संविधान में अंतर्निहित बुनियादी सिद्धांतों का प्रतीक है। आगे यह भी कहा गया कि “प्रस्तावना संशोधन योग्य नहीं है, और इसे बदला या निरस्त नहीं किया जा सकता है” और “प्रस्तावना संविधान का एक हिस्सा है और संविधान की मूल संरचना या ढांचे से संबंधित है”।

भारतीय जीवन बीमा निगम एवं अन्य बनाम उपभोक्ता शिक्षा एवं अनुसंधान (1995) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने दोहराया कि प्रस्तावना संविधान का एक हिस्सा है। 

तो, अंत में, संविधान की प्रस्तावना को दस्तावेज़ की एक सुंदर प्रस्तावना माना जाता है क्योंकि इसमें संविधान के उद्देश्य और दर्शन जैसी सभी बुनियादी जानकारी शामिल होती है। 

प्रस्तावना और भारतीय संविधान के बारे में 15 तथ्य जो आप नहीं जानते होंगे 

  • भारत का मूल संविधान प्रेम बिहारी नारायण रायज़ादा द्वारा सुलेख (कैलीग्राफी) और इटैलिक शैली में लिखा गया था। 
  • भारतीय संविधान की हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखी मूल प्रतियां भारतीय संसद के पुस्तकालय में विशेष हीलियम से भरे डिब्बों में मौजूद हैं। 
  • भारतीय संविधान में 448 अनुच्छेदों और 12 अनुसूचियों के साथ 25 भाग हैं, जो इसे दुनिया के किसी भी संप्रभु देश का सबसे लंबा लिखित संविधान बनाता है।
  • भारतीय संविधान के अंतिम मसौदे को पूरा करने में संविधान सभा को ठीक 2 साल, 11 महीने और 18 दिन लगे थे। 
  • संविधान को अंतिम रूप देने से पहले इसमें लगभग 2000 संशोधन किए गए थे। 
  • संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान की प्रस्तावना भी ‘हम लोग’ से शुरू होती है। 
  • मौलिक अधिकारों की अवधारणा अमेरिकी संविधान से आई है क्योंकि उनमें नागरिकों के लिए नौ मौलिक अधिकार थे। 
  • 44वें संशोधन ने संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार से हटा दिया, जो संविधान के अनुच्छेद 31 के तहत दिया गया था, ‘कानून के अधिकार के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।’ 
  • भारत का संविधान सबसे अच्छा संविधान माना जाता है क्योंकि इसमें त्रुटियों को बदलने का प्रयास किया जाता है। इस वजह से, संविधान में अतीत में 100 से अधिक संशोधन हो चुके हैं। 
  • संविधान के अन्य सभी पन्नों के साथ-साथ प्रस्तावना के पृष्ठ को जबलपुर के प्रसिद्ध चित्रकार ब्योहर राममनोहर सिन्हा द्वारा डिजाइन और सजाया गया था। 
  • भारत का संविधान एक हस्तलिखित संविधान है जिस पर 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा के 284 सदस्यों द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे, जिनमें से 15 महिलाएं थीं, हस्ताक्षर करने के दो दिन बाद अर्थात् 26 जनवरी को यह लागू हुआ था। 
  • संविधान का अंतिम मसौदा 26 नवंबर 1949 को पूरा हुआ था और यह दो महीने बाद 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ जिसे गणतंत्र दिवस के रूप में जाना जाता है। 
  • संविधान का मसौदा तैयार करते समय हमारी प्रारूपण समिति द्वारा विभिन्न संविधानों से कई प्रावधानों को अपनाया जाता है। 
  • राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (डीपीएसपी) की अवधारणा आयरलैंड से अपनाई गई थी। 
  • हमारी प्रस्तावना में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की अवधारणा को फ्रांसीसी क्रांति के  फ्रांसीसी मोटो आदर्श वाक्य से अपनाया गया था।

निष्कर्षतः, प्रस्तावना संविधान का एक अभिन्न अंग है और इसे संविधान की आत्मा, और रीढ़ के रूप में व्यापक रूप से सराहा जाता है। प्रस्तावना संविधान के मूलभूत मूल्यों और मार्गदर्शक सिद्धांतों पर प्रकाश डालती है। प्रस्तावना में घोषणा की गई है कि भारत के नागरिकों ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को स्वीकार किया, लेकिन संविधान के प्रारंभ होने की तिथि 26 जनवरी 1950 तय की गई थी। 

संविधान की प्रस्तावना को लागू करने का उद्देश्य वर्ष 1976 में किए गए संशोधन के बाद पूरा हुआ, जिसने ‘संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य’ शब्द को ‘संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य’ के स्थान पर प्रतिस्थापित कर दिया था। संविधान की प्रस्तावना भारत के लोगों की आकांक्षा का प्रतीक है। 

संविधान के अनुच्छेद 394 में कहा गया है कि अनुच्छेद 5 , 6 , 7 , 8 , 9 , 60 , 324 , 367 , 379 और 394 26 नवंबर 1949 को संविधान को अपनाने के बाद से लागू हुए और बाकी प्रावधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुए थे। भारत के संविधान की प्रस्तावना अब तक तैयार की गई सर्वश्रेष्ठ प्रस्तावनाओं में से एक है, न केवल विचारों में बल्कि अभिव्यक्ति में भी। इसमें संविधान का उद्देश्य शामिल है, एक स्वतंत्र राष्ट्र का निर्माण करना जो न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधूता की रक्षा करता है जो संविधान के उद्देश्य हैं।

अक्सर पूछे गए प्रश्न (एफएक्यू)

सर्वोच्च न्यायालय ने किस मामले में यह राय दी गई थी कि 1976 के संशोधन अधिनियम से पहले भी धर्मनिरपेक्षता संविधान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थी.

एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को संविधान की मूल संरचना की एक अनिवार्य विशेषता के रूप में शामिल किया गया है और 42वां संशोधन से पहले भी यह संवैधानिक दर्शन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। न्यायालय ने यह भी कहा कि “धर्मनिरपेक्षता बंधुता के निर्माण का गढ़ है”।

किस मामले में बंधुता की अवधारणा पर पहली बार विस्तार से चर्चा की गई थी?

इंद्रा साहनी आदि बनाम भारत संघ और अन्य (1992) के मामले में, बंधुता की अवधारणा का उपयोग दो महत्वपूर्ण मुद्दों में किया गया था, अर्थात् बंधुता के संबंध में संविधान में सन्निहित आरक्षण के प्रावधान का बचाव करने के लिए, और गलत तरीके से इस्तेमाल करने पर इसका बंधुता के संबंधों पर असर पड़ता है पर चर्चा करने के लिए भी। हमारी प्रस्तावना में निर्धारित बंधुता की अवधारणा का उपयोग समाज के कमजोर वर्गों में प्रगति लाने के लिए समाज के पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की प्रथा को उचित ठहराने के लिए किया गया था। 

क्या प्रस्तावना भारतीय संविधान के मूल संरचना सिद्धांत का हिस्सा है?

प्रस्तावना में उल्लिखित उद्देश्य भारत के संविधान के मूल संरचना सिद्धांत का एक हिस्सा हैं। सिद्धांत के अनुसार, संसद के पास संविधान में संशोधन करने की असीमित शक्ति है। हालाँकि, संशोधन से संविधान की मूल संरचना बाधित नहीं होनी चाहिए। जैसा कि लेख में चर्चा की गई है, कानून में यह स्थापित स्थिति है कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा बनती है और इसलिए संविधान की तरह ही इसमें भी मूल संरचना सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए संशोधन किया जा सकता है। जहां तक ​​संविधान की मूल संरचना का सवाल है, इसे तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार निर्णय लेने के लिए अदालतों पर छोड़ दिया गया था। 

  • https://www.cambridge.org/core/services/aop-cambridge-core/content/view/0C548A998AEB5EAC78AD43D1B150B8B1/S0018246X21000856a.pdf/the-people-and-the-making-of-indias-constitution.pdf  
  • संविधान की प्रस्तावना: भारतीय संविधान का हृदय, आत्मा और लक्ष्य, रिद्धिमान मुखर्जी और दिब्यांगना दास, [खंड। 4 अंक 2; 233], इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ लॉ मैनेजमेंट एंड ह्यूमैनिटीज़  
  • भारत के संविधान का परिचय, 11वाँ संस्करण, बृज किशोर शर्मा
  • https://papers.ssrn.com/sol3/papers.cfm?abstract_id=2043496  
  • https://www.jetir.org/papers/JETIR2102201.pdf  

essay on preamble of indian constitution in hindi

संबंधित लेख लेखक से और अधिक

व्यापार चिह्न अधिनियम 1999 की धारा 42, रेवनसिद्दप्पा एवं अन्य बनाम मल्लिकार्जुन एवं अन्य (2011), कॉर्पोरेट दिवाला समाधान प्रक्रिया से पहले अंतरिम स्थगन लागू करना, कोई जवाब दें जवाब कैंसिल करें.

Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment.

EDITOR PICKS

Popular posts, popular category.

  • Law Notes 2129
  • constitution of India 1950 360
  • Indian Penal Code 1860 296
  • General 284
  • Code of Criminal Procedure 163
  • Indian Contract Act 1872 145
  • Code of Civil Procedure1908 112

iPleaders consists of a team of lawyers hell-bent on figuring out ways to make law more accessible. While the lack of access to affordable and timely legal support cuts across all sectors, classes and people in India, where it is missed most, surprisingly, are business situations.

Contact us: [email protected]

© Copyright 2021, All Rights Reserved.

IMAGES

  1. PEACOCKRIDE Paper Preamble of Indian Constitution Wall Poster (Multicolour, A3) : Amazon.in

    essay on preamble of indian constitution in hindi

  2. Salient Features of The Indian Constitution UPSC Notes

    essay on preamble of indian constitution in hindi

  3. Preamble of Indian constitution

    essay on preamble of indian constitution in hindi

  4. NCERT MOST IMPORTANT QUESTION FOR CLASS-9 CHAPTER-2 Constitutional Design (POLITICAL SCIENCE

    essay on preamble of indian constitution in hindi

  5. Bharat ka Sanvidhan

    essay on preamble of indian constitution in hindi

  6. Constitution Of India And Its Salient Features

    essay on preamble of indian constitution in hindi

VIDEO

  1. Indian Constitution in Audio format -Preamble

  2. Preamble of the Constitution (संविधान की प्रस्तावना) Part 1

  3. Indian Constitution Preamble Updated, Removing Secular and Socialist

  4. Indian Constitution

  5. Preamble of the Indian Constitution in both English and Hindi

  6. Preamble of Indian constitution #indian #constitutionofindia #preambleofindianconstitution